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ब्रह्मज्ञान: जीवन का परम रहस्य

ब्रह्मज्ञान: जीवन का परम रहस्य

परिचय: अनुभव की गहराइयों में

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारा अस्तित्व केवल शारीरिक सीमाओं से परे है? त्रिज्ञान कार्यक्रम के तीसरे दिन हम ब्रह्मज्ञान की उस गहन यात्रा पर चलेंगे, जो हमारी चेतना के मूल स्वरूप को समझने का प्रयास करती है।

ब्रह्मज्ञान: मूल अवधारणा

अनुभव और अनुभव कर्ता: एक अभिन्न संबंध

ब्रह्मज्ञान की मूल समझ इस बात पर केंद्रित है कि:

  • अनुभव और अनुभव करने वाला एक ही है
  • बाहरी परिवर्तन केवल रूप में होते हैं, सार नहीं बदलता

मिट्टी और घड़े का उदाहरण

जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है, फिर भी मिट्टी अपने मूल स्वरूप में ही रहती है, उसी प्रकार हमारा अस्तित्व भी विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, लेकिन उसका मूल सार अपरिवर्तनीय रहता है।

दूरी का भ्रम

शरीर और चेतना के बीच की दूरी

हम अक्सर सोचते हैं कि:

  • हम शरीर हैं
  • चीजें हमसे दूर हैं
  • अनुभव और अनुभव कर्ता अलग-अलग हैं

लेकिन ब्रह्मज्ञान कहता है – यह सब एक भ्रम है!

चेतना का सार: अनंत और सर्वव्यापी

आकाश का उदाहरण

जैसे आकाश सर्वव्यापी है और हर वस्तु को अपने में समाहित करता है, उसी प्रकार हमारी चेतना भी:

  • सबको धारण करती है
  • किसी सीमा से बंधी नहीं है
  • हर अनुभव का आधार है

जीवन में ब्रह्मज्ञान का अनुप्रयोग

साक्षी भाव: जीवन का सरल मार्ग

ब्रह्मज्ञान के अनुसार जीवन जीने के लिए:

  • अपने अनुभवों का साक्षी बनें
  • किसी भी परिस्थिति में संतुलन बनाए रखें
  • भय, चिंता और संघर्ष से मुक्त रहें

निष्कर्ष: परम सत्य की ओर

ब्रह्मज्ञान हमें सिखाता है कि:

  • हम केवल शरीर नहीं हैं
  • हमारा अस्तित्व अनंत है
  • हर अनुभव एक क्षणिक प्रकटीकरण मात्र है

अंतिम संदेश

याद रखें, ब्रह्मज्ञान एक अनुभव है, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, शब्दों में पूरी तरह बयान नहीं किया जा सकता।

“मैं हूँ, जो अनंत अस्तित्व हूँ, जो हर रूप में प्रकट होता है।”

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माया का ज्ञान

माया का ज्ञान

परिचय: माया क्या है?

माया शब्द संस्कृत से आया है जिसका अर्थ है “जो नहीं है”। आध्यात्मिक दर्शन में माया का अर्थ है वह भ्रम जो हमें सत्य से दूर रखता है। त्रिज्ञान कार्यक्रम के द्वितीय दिवस में हम इसी माया के विषय में विस्तार से जानेंगे। पहले दिन आत्मज्ञान के माध्यम से हमने जाना कि “मैं कौन हूँ?”, और अब दूसरे दिन हम जानेंगे कि “जगत क्या है?”

जब हम अपने चारों ओर देखते हैं तो हमें एक दृश्य जगत दिखाई देता है – वस्तुएँ, व्यक्ति, घटनाएँ, अनुभव। लेकिन क्या यह सब वास्तव में वैसा ही है जैसा हमें दिखाई देता है? या यह सब एक भ्रम है? आइए इसे गहराई से समझें।

वस्तुनिष्ठता का भ्रम

हम सभी मानते हैं कि हमारे चारों ओर की दुनिया वस्तुनिष्ठ है, यानी सभी के लिए एक समान। उदाहरण के लिए, अगर हम सभी एक टेबल देख रहे हैं, तो हम मानते हैं कि वह टेबल सभी के लिए एक जैसा ही है। लेकिन क्या यह सत्य है?

यहाँ एक सरल उदाहरण लें:

  • एक व्यक्ति को रंग-अंधापन है और वह लाल रंग नहीं देख सकता
  • वह ट्रैफिक सिग्नल को अलग रंग में देखता है
  • दूसरा व्यक्ति उसे लाल में देखता है

तो प्रश्न उठता है: सच क्या है? सिग्नल का वास्तविक रंग क्या है?

इसी तरह, जब दो लोग एक ही घटना देखते हैं, वे उसका अलग-अलग अनुभव कर सकते हैं। एक व्यक्ति को कोई व्यंजन स्वादिष्ट लगता है, दूसरे को वही बेस्वाद। कोई व्यक्ति किसी फिल्म को अच्छा मानता है, दूसरा बुरा। यहाँ सत्य क्या है?

यह दर्शाता है कि जगत वस्तुनिष्ठ नहीं, बल्कि व्यक्तिनिष्ठ है – हर व्यक्ति का अपना अनुभव, अपनी समझ है।

परिवर्तनशीलता: माया का मूल लक्षण

माया का एक मुख्य लक्षण है – परिवर्तनशीलता। जो चीज़ बदलती है, वह सत्य नहीं हो सकती। और हम देखते हैं कि इस संसार में हर चीज़ बदल रही है:

  1. सूक्ष्म परिवर्तन: टमाटर का उदाहरण लें। आज जो ताज़ा है, पाँच दिन बाद सड़ जाएगा। यदि हम समय को तेज़ कर दें तो हम देखेंगे कि टमाटर का वास्तविक अस्तित्व नहीं है – वह सिर्फ एक क्षणिक अवस्था है।
  2. मध्यम परिवर्तन: हमारा शरीर – बचपन से जवानी और फिर बुढ़ापे तक, निरंतर बदल रहा है।
  3. दीर्घकालिक परिवर्तन: पहाड़, नदियाँ, सूर्य, चंद्र – ये सब भी लंबे समय में बदलते हैं।

इस संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है, सब कुछ परिवर्तनशील है। और जो परिवर्तनशील है, वह सत्य कैसे हो सकता है?

अनुभव और अनुभवकर्ता

जब हम अपने अनुभवों को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि हर अनुभव को अनुभव करने वाला कोई होना चाहिए। उदाहरण के लिए:

  • टेबल दिखता है – अनुभव
  • मैं देखता हूँ – अनुभवकर्ता

इसी तरह:

  • दर्द होता है – अनुभव
  • मैं महसूस करता हूँ – अनुभवकर्ता

हमारे सभी अनुभव बदलते रहते हैं – सुख-दुःख, भूख-प्यास, संवेदनाएँ, विचार – लेकिन अनुभवकर्ता वही रहता है। यह अनुभवकर्ता ही आत्मज्ञान में जिसे हमने “मैं” के रूप में जाना, वही एकमात्र स्थिर तत्व है।

माया की चार विशेषताएँ

माया के मुख्य लक्षण हैं:

  1. परिवर्तनशीलता: जगत में हर चीज़ बदलती है।
  2. अनित्यता: कुछ भी स्थायी नहीं है, सब नाशवान है।
  3. भ्रामकता: चीज़ें वैसी नहीं होतीं जैसी दिखती हैं।
  4. व्यक्तिनिष्ठता: हर व्यक्ति का अनुभव अलग होता है।

फिल्म और सपने का उदाहरण

माया को समझने का एक अच्छा तरीका है फिल्म या सपने का उदाहरण। जब हम फिल्म देखते हैं, तो हम जानते हैं कि वह असत्य है, फिर भी हम उसमें डूब जाते हैं। हम खुश होते हैं, दुःखी होते हैं, डरते हैं – सब कुछ फिल्म के अनुसार अनुभव करते हैं। लेकिन फिल्म खत्म होने पर हमें याद आता है कि वह सब असत्य था।

इसी तरह सपने में भी – सपने के दौरान हमें लगता है कि वह सब सत्य है, लेकिन जागने पर पता चलता है कि वह सब माया थी।

क्या यह जीवन भी ऐसा ही नहीं है? हम इसमें डूबे हैं, इसे सत्य मानते हैं, लेकिन यह भी एक लंबा सपना ही तो है!

अस्तित्व क्या है?

अब प्रश्न उठता है: यदि सब कुछ माया है, तो सत्य क्या है? अस्तित्व क्या है?

ज्ञान मार्ग हमें बताता है कि सत्य केवल दो चीज़ों का मिश्रण है:

  1. अनुभव
  2. अनुभवकर्ता

इन दोनों के मिलन को ही “अस्तित्व” या “ब्रह्म” कहा जाता है। बाकी सब माया है, भ्रम है। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और “मैं” (अनुभवकर्ता) ब्रह्म का ही अंश है।

माया में जीवन: व्यावहारिक दृष्टिकोण

जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि जगत माया है, तो हमारी जीवन शैली कैसी होनी चाहिए?

  1. साक्षीभाव: शरीर, मन और जगत के क्रियाकलापों को साक्षी भाव से देखें। हम केवल द्रष्टा हैं, कर्ता नहीं।
  2. अनासक्ति: माया में आसक्त न हों। जैसे फिल्म देखते हुए हम जानते हैं कि वह वास्तविक नहीं है, वैसे ही जीवन को जानें।
  3. अहंकार का त्याग: “मैं कर्ता हूँ” का भाव छोड़ें। कोई कुछ नहीं करता, सब अपने आप घटित हो रहा है।
  4. आनंद में रहें: माया का खेल जारी रहेगा, लेकिन हम इसे जानते हुए आनंद से जी सकते हैं।

निष्कर्ष: माया से परे

जो हम देखते हैं, महसूस करते हैं, अनुभव करते हैं – वह सब माया है। वह सब बदलता है, अनित्य है। परंतु इस माया को जानने वाला, अनुभव करने वाला “मैं” स्थिर है, शाश्वत है। वही एकमात्र सत्य है।

त्रिज्ञान के दूसरे दिन, हम इस माया के ज्ञान को समझते हैं। पहले दिन आत्मज्ञान (मैं कौन हूँ?) और दूसरे दिन माया का ज्ञान (जगत क्या है?) के बाद, तीसरे दिन हम ब्रह्म ज्ञान (परम सत्य क्या है?) को समझेंगे, जो त्रिज्ञान का पूर्ण रूप है।

यदि आप माया के इस ज्ञान को अधिक गहराई से समझना चाहते हैं, तो कैवल्याश्रम के त्रिज्ञान कार्यक्रम में आमंत्रित हैं, जहाँ माँ शून्य के मार्गदर्शन में यह ज्ञान विस्तार से समझाया जाता है।


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आत्मज्ञान – “मैं कौन हूँ?”

आत्मज्ञान – “मैं कौन हूँ?”

परिचय – आत्मज्ञान का महत्व

वेदों में कहा गया है, “आत्मानं विद्धि” – अपने आप को जानो। सम्पूर्ण अध्यात्म का सार इस छोटे से वाक्य में समाहित है। वास्तव में, “मैं कौन हूँ?” यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका उत्तर जानना प्रत्येक साधक के लिए अनिवार्य है।

कैवल्याश्रम मेरठ में, हम इसी प्रश्न पर आधारित आत्म-अन्वेषण की यात्रा का मार्गदर्शन करते हैं। ज्ञान मार्ग पर चलने वाले साधकों को माँ शून्या के मार्गदर्शन में वास्तविक आत्मज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह लेख उन्हीं सिद्धांतों और अनुभवों पर आधारित है, जिन्हें हमारे आश्रम में सरल भाषा में समझाया जाता है।

आइए, आत्मज्ञान की इस यात्रा पर चलें और जानें – “मैं कौन हूँ?”

“मैं कौन हूँ?” – प्रश्न का महत्व

अधिकतर लोग जीवन भर यह जानने का प्रयास करते हैं कि वे क्या चाहते हैं, उन्हें क्या पसंद है, उनका लक्ष्य क्या है – परंतु बहुत कम लोग इस मूलभूत प्रश्न पर विचार करते हैं कि “मैं कौन हूँ?”

महर्षि रमण ने इसी प्रश्न को आत्म-साक्षात्कार का सीधा मार्ग बताया था। उनके अनुसार, “मैं कौन हूँ?” का निरंतर अभ्यास मन को अंतर्मुखी बनाता है और अंततः आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।

हमारे आश्रम में हम साधकों को इस प्रश्न के साथ जीने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह केवल बौद्धिक प्रश्न नहीं है, बल्कि एक ऐसी खोज है जो हमारे अस्तित्व के मूल को स्पर्श करती है।

आत्मज्ञान की परिभाषा

आत्मज्ञान का अर्थ है अपने वास्तविक स्वरूप को जानना। यह जानना कि मेरा तत्व क्या है? वह क्या है जो मुझे परिभाषित करता है और जिसके बिना मैं नहीं रह सकता?

अद्वैत वेदांत के अनुसार, आत्मज्ञान अर्थात् अपने सच्चिदानंद स्वरूप का बोध। सत् (अस्तित्व), चित् (ज्ञान) और आनंद (परमानंद) – यही हमारा वास्तविक स्वरूप है।

कैवल्याश्रम में हम आत्मज्ञान को सिद्धांत के साथ-साथ अनुभव का विषय मानते हैं। हमारे त्रिज्ञान कार्यक्रम में साधकों को तीन प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं:

  1. आत्म ज्ञान – मैं क्या हूँ?
  2. माया का ज्ञान – जगत क्या है?
  3. ब्रह्म ज्ञान – परम सत्य क्या है?

इन तीनों में से आत्मज्ञान सबसे मूलभूत है, क्योंकि इसके बिना अन्य ज्ञान अपूर्ण रहते हैं।

“मैं क्या नहीं हूँ?” – नेति-नेति विधि

आत्मज्ञान की यात्रा में पहला कदम है – यह जानना कि “मैं क्या नहीं हूँ।” उपनिषदों में इसे “नेति-नेति” (न इति, न इति – यह नहीं, यह नहीं) विधि कहा गया है।

आइए, क्रमशः विभिन्न स्तरों पर देखें कि मैं क्या नहीं हूँ:

1. भौतिक वस्तुएँ

सबसे पहले, मैं अपने आस-पास की कोई भी वस्तु नहीं हूँ – न घर, न कार, न पुस्तकें, न कोई भी संपत्ति। ये सभी वस्तुएँ मेरी हो सकती हैं, लेकिन मैं इनमें से कोई भी नहीं हूँ।

इसके दो प्रमाण हैं:

  • इन वस्तुओं का अनुभव मुझे होता है, और जिसका अनुभव होता है, वह मैं नहीं हो सकता
  • ये वस्तुएँ आती-जाती और बदलती रहती हैं, जबकि मैं स्थिर रहता हूँ

2. शरीर

क्या मैं अपना शरीर हूँ? यह प्रश्न थोड़ा गहरा है। अधिकतर लोग अपने को शरीर ही मानते हैं, लेकिन गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि मैं शरीर नहीं हूँ।

कारण:

  • शरीर निरंतर बदलता रहता है – पाँच वर्ष पहले का शरीर और आज का शरीर भिन्न है
  • शरीर का अनुभव मुझे होता है – मैं देखता हूँ कि मेरा हाथ ऐसा है, पैर वैसा है
  • शरीर के किसी भाग के न रहने पर भी (जैसे हाथ या पैर) मैं पूर्ण रहता हूँ

हम कहते हैं, “मेरा शरीर” न कि “मैं शरीर हूँ।” यह “मेरा” शब्द ही बताता है कि शरीर मेरी संपत्ति है, मैं स्वयं नहीं।

3. शारीरिक अनुभूतियाँ

भूख, प्यास, दर्द, थकान – ये सभी शारीरिक अनुभूतियाँ हैं। क्या मैं इनमें से कोई हूँ?

जब भूख नहीं होती, तब भी मैं होता हूँ। जब दर्द नहीं होता, तब भी मैं होता हूँ। जब थकान नहीं होती, तब भी मैं होता हूँ।

ये अनुभूतियाँ आती-जाती रहती हैं, जबकि मैं स्थिर रहता हूँ। इसलिए, मैं इनमें से कोई भी नहीं हूँ।

4. भावनाएँ

क्रोध, प्रेम, घृणा, भय, आनंद, दुःख – ये सभी भावनाएँ हैं। क्या मैं इनमें से कोई हूँ?

हम कहते हैं, “मुझे क्रोध आ रहा है,” “मुझे प्रेम हो रहा है,” “मुझे भय लग रहा है।” इन वाक्यों में, मैं वह हूँ जिसे ये भावनाएँ होती हैं, न कि स्वयं भावनाएँ।

भावनाएँ भी आती-जाती हैं, जबकि मैं स्थिर रहता हूँ। इसलिए, मैं कोई भी भावना नहीं हूँ।

5. विचार

क्या मैं अपने विचार हूँ? हमारे मन में प्रतिक्षण अनेक विचार आते-जाते रहते हैं। यदि मैं अपने विचार होता, तो मैं हर पल बदल रहा होता।

जब विचार नहीं होते (जैसे गहरी नींद में), तब भी मैं होता हूँ। विचारों का अनुभव मुझे होता है, और जिसका अनुभव होता है, वह मैं नहीं हो सकता।

इसलिए, मैं अपने विचार नहीं हूँ।

6. स्मृतियाँ

मेरा नाम, पता, शिक्षा, परिवार, रिश्ते – ये सभी स्मृतियाँ हैं। क्या मैं अपनी स्मृतियाँ हूँ?

यदि मैं अपनी स्मृति खो दूँ (जैसे, अपना नाम भूल जाऊँ), तब भी मैं होता हूँ। मैं कहूँगा, “मुझे याद नहीं,” न कि “मैं नहीं हूँ।”

इसलिए, मैं अपनी स्मृतियाँ नहीं हूँ।

7. अहंकार (मैं-भाव)

अंत में, मैं अपना अहंकार भी नहीं हूँ – वह “मैं” जो कहता है, “मैं ऐसा हूँ,” “मैं वैसा हूँ।”

अहंकार भी एक विचार है, जिसका अनुभव मुझे होता है। जब अहंकार शांत होता है (जैसे ध्यान में), तब भी मैं होता हूँ।

इसलिए, मैं अपना अहंकार भी नहीं हूँ।

“तो मैं क्या हूँ?” – साक्षी चेतना

जब हम क्रमशः सभी अनुभवों को अपने से अलग कर देते हैं, तो क्या बचता है? वह साक्षी चेतना जो सभी अनुभवों का साक्षी है, लेकिन स्वयं किसी अनुभव का विषय नहीं बनती।

कैवल्याश्रम में हम इसे सरल शब्दों में समझाते हैं – मैं वह हूँ जो देखता है, जानता है, अनुभव करता है, लेकिन स्वयं देखा, जाना या अनुभव नहीं किया जा सकता।

इस साक्षी चेतना के पाँच मुख्य गुण हैं:

1. निराकार और अपरिवर्तनशील

साक्षी का कोई आकार या रूप नहीं है। यदि इसका कोई रूप होता, तो यह अनुभव का विषय बन जाता और फिर साक्षी नहीं रहता।

साक्षी अपरिवर्तनशील है – यह कभी नहीं बदलता। यदि यह बदलता, तो इसके बदलने का अनुभव किसे होता? फिर वह भी साक्षी होता, और हम अनंत प्रतिगमन में फँस जाते।

2. अजन्मा, अजर, अमर

जन्म का अर्थ है – किसी पदार्थ का रूपांतरण। जैसे, मिट्टी से घड़ा बनना। घड़े का जन्म होता है, लेकिन मिट्टी पहले से थी।

साक्षी कोई पदार्थ नहीं है, इसलिए इसका जन्म नहीं होता। यह अजन्मा है।

जिसका जन्म नहीं होता, उसकी मृत्यु भी नहीं होती। इसलिए, साक्षी अमर है।

जिसमें परिवर्तन नहीं होता, वह बूढ़ा नहीं होता। इसलिए, साक्षी अजर है।

3. मुक्त और स्वतंत्र

साक्षी सदा मुक्त है – यह किसी बंधन में नहीं आता। शरीर बंधन में हो सकता है, मन बंधन में हो सकता है, लेकिन साक्षी सदा मुक्त रहता है।

यह जन्म-मृत्यु के चक्र से भी मुक्त है। यही वास्तविक मोक्ष है – अपने मुक्त स्वरूप को जान लेना।

4. शांत और आनंदमय

साक्षी में कोई विचार नहीं है, कोई द्वंद्व नहीं है, कोई दुःख नहीं है। यह स्वभाव से ही शांत और आनंदमय है।

गहरी नींद में जब कोई विचार नहीं होता, तब भी जो शांति का अनुभव होता है, वह साक्षी का स्वभाव है।

5. सर्वव्यापी और एक

सभी में एक ही साक्षी है। जैसे घट के आकाश और महा-आकाश में कोई भेद नहीं है, वैसे ही सभी प्राणियों में एक ही साक्षी है।

यही अद्वैत है – अनेकता में एकता का दर्शन। जब हम इस सत्य को जान लेते हैं, तो प्रेम स्वाभाविक हो जाता है, क्योंकि हम जान लेते हैं कि सभी में वही चेतना विराजमान है जो हममें है।

आत्मज्ञान प्राप्त करने की विधियाँ

कैवल्याश्रम में हम आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निम्न विधियों का अभ्यास करवाते हैं:

1. आत्म-विचार

“मैं कौन हूँ?” इस प्रश्न पर निरंतर चिंतन-मनन करना। जब भी कोई विचार आए, अपने से पूछें, “यह विचार किसे आ रहा है?” और विचारों के मूल तक जाएँ।

2. साक्षी भाव का अभ्यास

हर अनुभव, हर विचार, हर भावना को केवल देखें, उनमें लिप्त न हों। धीरे-धीरे यह अभ्यास आपको अपने साक्षी स्वरूप से परिचित कराएगा।

3. ध्यान

नियमित ध्यान से मन शांत होता है और अंतर्मुखी बनता है। शांत मन में ही आत्मज्ञान का प्रकाश फैलता है।

4. सत्संग

ज्ञानी गुरु के साथ सत्संग से आत्मज्ञान का मार्ग स्पष्ट होता है। कैवल्याश्रम में नियमित सत्संग से साधकों के सभी संदेह दूर होते हैं।

5. आत्म-अन्वेषण कार्यक्रम

हमारे त्रिज्ञान कार्यक्रम में साधकों को आत्मज्ञान के मार्ग पर चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ाया जाता है। इसमें सिद्धांत और अनुभव, दोनों पर बल दिया जाता है।

आत्मज्ञान से जीवन में परिवर्तन

आत्मज्ञान केवल एक दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक ऐसा अनुभव है जो जीवन को पूरी तरह बदल देता है। आत्मज्ञान से मिलने वाले लाभ:

1. शांति और आनंद

जब आप जान जाते हैं कि आप शरीर, मन, या किसी भी अनुभव से परे हैं, तो शांति स्वाभाविक हो जाती है। आप किसी भी परिस्थिति में अपने आनंदमय स्वरूप में स्थित रहते हैं।

2. भय का अंत

मृत्यु का भय, हानि का भय, असफलता का भय – ये सभी भय समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि आप जान जाते हैं कि आपका वास्तविक स्वरूप अजन्मा और अमर है।

3. प्रेम और करुणा

जब आप सभी में एक ही चेतना देखते हैं, तो प्रेम और करुणा स्वाभाविक हो जाती है। आत्मज्ञानी पुरुष सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है।

4. द्वंद्वों से मुक्ति

सुख-दुःख, लाभ-हानि, सम्मान-अपमान – ये सभी द्वंद्व आत्मज्ञानी को प्रभावित नहीं करते। वह इन सबके साक्षी भाव से रहता है।

5. आत्म-संतुष्टि

आत्मज्ञानी को बाहरी वस्तुओं या परिस्थितियों से सुख-शांति की अपेक्षा नहीं रहती। वह अपने में ही पूर्ण और संतुष्ट रहता है।

कैवल्याश्रम में आत्मज्ञान की यात्रा

कैवल्याश्रम मेरठ में साधकों को आत्मज्ञान के मार्ग पर व्यावहारिक मार्गदर्शन मिलता है। हमारे यहां:

  • त्रिज्ञान कार्यक्रम: तीन दिन के इस गहन कार्यक्रम में साधकों को आत्मज्ञान, माया का ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान का परिचय मिलता है।
  • नियमित सत्संग: माँ शून्या के मार्गदर्शन में सत्संग से साधकों के संदेह दूर होते हैं।
  • ध्यान शिविर: विभिन्न ध्यान विधियों का अभ्यास कराया जाता है, जिससे साधक अंतर्मुखी होकर आत्म-अन्वेषण कर सकें।
  • आत्म-अन्वेषण कक्षाएँ: इन कक्षाओं में साधकों को “मैं कौन हूँ?” प्रश्न पर गहन चिंतन-मनन का अवसर मिलता है।
  • व्यक्तिगत मार्गदर्शन: प्रत्येक साधक की आध्यात्मिक यात्रा अद्वितीय होती है। हम व्यक्तिगत स्तर पर भी मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।

निष्कर्ष – आत्मज्ञान की ओर आपका आमंत्रण

“मैं कौन हूँ?” – इस सरल प्रश्न में गहन आध्यात्मिक खोज छिपी है। यह खोज आपको अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराती है – वह स्वरूप जो शाश्वत, आनंदमय और पूर्ण है।

कैवल्याश्रम मेरठ में हमारा प्रयास है कि प्रत्येक साधक को आत्मज्ञान के इस पवित्र मार्ग पर सरल और सहज तरीके से आगे बढ़ाया जाए। हमारा आश्रम आपका स्वागत करता है – आत्म-साक्षात्कार के इस पवित्र स्थल में।


“स्वयं को जानो, और तुम सारे ब्रह्मांड को जान जाओगे।”

— माँ शून्य, कैवल्याश्रम मेरठ


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