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राम नाम में छुपी शांति का रहस्य: एक अद्वैत दृष्टिकोण

राम नाम में छुपी शांति का रहस्य: एक अद्वैत दृष्टिकोण

राम नाम: शांति की आधारशिला

हे राम, हे राम – यह पुकार केवल भावना नहीं, अपितु सत्य की खोज है। जब मन की गहराई से यह ध्वनि उठती है, तो वह केवल नाम नहीं, बल्कि उस परम सत्य का आह्वान होता है जो हमारे भीतर ही विराजमान है। जगत में सत्य का नाम यदि कोई है, तो वह राम ही है – न केवल एक व्यक्तित्व के रूप में, बल्कि उस चैतन्य तत्व के रूप में जो समस्त अस्तित्व का आधार है।

आधुनिक युग में जब मनुष्य तनाव और अशांति से घिरा रहता है, तब राम नाम की शरण में आकर वह उस अनंत शांति का अनुभव कर सकता है जो उसके भीतर ही छुपी हुई है। यह शांति कोई बाहरी वस्तु नहीं है जिसे प्राप्त करना हो, बल्कि हमारे स्वयं के स्वरूप की अभिव्यक्ति है।

अद्वैत दृष्टिकोण से राम नाम

राम = सत्-चित्-आनंद का स्वरूप

वेदांत दर्शन के अनुसार राम केवल अयोध्या के राजा नहीं हैं, बल्कि उस परब्रह्म के प्रतीक हैं जो सत्-चित्-आनंद स्वरूप है। ‘रा’ अक्षर अग्नि तत्व का प्रतीक है जो अज्ञान को जलाता है, और ‘म’ अक्षर उस परम तत्व का द्योतक है जो सभी में व्याप्त है। जब हम राम नाम का जप करते हैं, तो वास्तव में हम अपने ही सत्स्वरूप का स्मरण कर रहे होते हैं।

नाम और नामी की अभेदता

अद्वैत सिद्धांत के अनुसार नाम और नामी में कोई भेद नहीं है। जैसे समुद्र और उसकी लहरें अलग नहीं हैं, वैसे ही राम नाम और राम तत्व में कोई अंतर नहीं है। जब साधक पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ राम नाम का जप करता है, तो वह धीरे-धीरे उस तत्व में विलीन हो जाता है।

शब्द ब्रह्म की शक्ति

वेदों में कहा गया है – “वाग्वै ब्रह्म” – वाणी ही ब्रह्म है। राम नाम में वह दिव्य कंपन है जो हमारी चेतना को उच्च आयामों तक ले जाता है। यह केवल ध्वनि नहीं है, बल्कि उस महान शक्ति का प्रकटीकरण है जो सृष्टि के मूल में विद्यमान है।

ज्ञान मार्गीय विवेचन

साक्षी भाव में राम नाम

ज्ञान मार्ग में साधक को साक्षी भाव में स्थित होकर सभी क्रियाओं को देखना सिखाया जाता है। राम नाम का जप भी इसी साक्षी भाव में करना चाहिए। जब हम यह भावना करते हैं कि “मैं राम नाम जप रहा हूं” तो यह द्वैत है, लेकिन जब यह अनुभव होता है कि “राम नाम स्वयं अपना जप कर रहा है” तो यह अद्वैत की अनुभूति है।

चित्त शुद्धि का साधन

मन में उठने वाले विकारों का शमन राम नाम के द्वारा सहज रूप से होता है। जैसे सूर्य के उदय होने पर अंधकार स्वतः समाप्त हो जाता है, वैसे ही राम नाम के स्मरण से मन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं। यह कोई कृत्रिम प्रक्रिया नहीं है, बल्कि सत्य की उपस्थिति में असत्य का स्वाभाविक विलय है।

निर्विकल्प समाधि में राम तत्व

जब साधक निर्विकल्प समाधि में प्रवेश करता है, तो वहां न तो जपने वाला रह जाता है, न जप, और न ही राम नाम। केवल वह तत्व शेष रहता है जो इन सबका आधार है। इस अवस्था में राम नाम और स्वयं का भेद समाप्त हो जाता है।

हंस प्रतीकवाद और राम तत्व

परमहंस की उड़ान

जैसे हंस आकाश में निर्भय होकर उड़ता है, वैसे ही राम नाम का आश्रय लेकर साधक की चेतना सभी सीमाओं से मुक्त हो जाती है। परमहंस अवस्था में पहुंचा साधक निरंतर “सो हम्” की अनुभूति में स्थित रहता है, जहां राम नाम का जप श्वास-प्रश्वास के साथ स्वाभाविक रूप से चलता रहता है।

नीर-क्षीर विवेक

जैसे हंस दूध और पानी के मिश्रण में से केवल दूध को ग्रहण करता है, वैसे ही राम नाम का स्मरण करने वाला साधक संसार की मिश्रित परिस्थितियों में भी केवल सत्य तत्व को ग्रहण करता है। यह विवेक धीरे-धीरे इतना तीक्ष्ण हो जाता है कि वह राम और अराम, सत्य और असत्य के बीच सहज भेद कर सकता है।

बुद्ध तत्व और राम चेतना

निर्वाण और राम लोक की समानता

बुद्ध द्वारा वर्णित निर्वाण और वेदांत में वर्णित राम लोक वास्तव में एक ही तत्व के भिन्न नाम हैं। दोनों में मुख्य बात यह है कि व्यक्तिगत अहंकार का पूर्ण विलय हो जाता है और केवल शुद्ध चैतन्य शेष रह जाता है। राम नाम का निरंतर स्मरण इसी अवस्था तक पहुंचने का सरल उपाय है।

मध्यम मार्ग में राम नाम

बुद्ध के मध्यम मार्ग के समान ही राम नाम का जप भी अति और न्यूनता से बचकर संतुलित रूप में करना चाहिए। न तो जबरदस्ती का जप और न ही पूर्ण उपेक्षा। जैसे वीणा के तार न अधिक कसे हों और न अधिक ढीले, वैसे ही राम नाम का स्मरण भी सहज और संतुलित होना चाहिए।

व्यावहारिक साधना

दैनिक जीवन में राम नाम का प्रयोग

राम नाम का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसे कभी भी, कहीं भी किया जा सकता है। चाहे आप काम कर रहे हों, चल रहे हों, या आराम कर रहे हों – हर समय मन में राम नाम की धुन बनी रह सकती है। प्रारंभ में यह सचेत प्रयास होगा, लेकिन धीरे-धीरे यह स्वाभाविक हो जाता है।

त्रिज्ञान कार्यक्रम में राम तत्व

कैवल्याश्रम के त्रिज्ञान कार्यक्रम में, माँ शून्य के मार्गदर्शन में, साधक यह समझते हैं कि राम नाम केवल भक्ति का विषय नहीं है, बल्कि ज्ञान मार्ग में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह कार्यक्रम पूर्णतः निःशुल्क है और हर साधक को राम तत्व की अनुभूति का अवसर प्रदान करता है।

त्रिज्ञान कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए यहाँ क्लिक करें और राम तत्व की गहरी समझ के साथ अपनी आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ करें। इस कार्यक्रम में आप सीखेंगे कि कैसे राम नाम ज्ञान मार्ग का आधार बनता है और कैसे इसके माध्यम से कैवल्य अवस्था तक पहुंचा जा सकता है।

सरल विधि: श्वास के साथ राम नाम

प्रारंभिक अभ्यास:

  1. शांत स्थान पर आराम से बैठें
  2. श्वास लेते समय मन में ‘रा’ कहें
  3. श्वास छोड़ते समय मन में ‘म’ कहें
  4. धीरे-धीरे यह प्रक्रिया स्वाभाविक हो जाएगी

उन्नत अभ्यास:

  1. राम नाम के साथ-साथ साक्षी भाव का विकास करें
  2. यह देखें कि कौन जप कर रहा है
  3. जपने वाले, जप और राम नाम की एकता का अनुभव करें

प्रगतिशील अनुभव के चरण

प्रथम चरण: राम नाम में मन की एकाग्रता
द्वितीय चरण: राम नाम के साथ आनंद की अनुभूति
तृतीय चरण: राम नाम में स्वयं का विलय
चतुर्थ चरण: राम नाम और स्वयं की अभेदता का अनुभव
पंचम चरण: निरंतर राम चेतना में स्थिति

आधुनिक जीवन में राम नाम की प्रासंगिकता

आज के तनावपूर्ण युग में राम नाम एक अमोघ औषधि है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी यह सिद्ध हो गया है कि मंत्र जप से मस्तिष्क में सकारात्मक तरंगों का प्रवाह होता है। राम नाम की विशेषता यह है कि यह न केवल मानसिक शांति देता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का भी साधन है।

तनाव मुक्ति का उपाय

जब मन चिंताओं से भरा हो, तो राम नाम का स्मरण तुरंत राहत देता है। यह कोई मानसिक सुझाव नहीं है, बल्कि राम नाम में निहित दिव्य शक्ति का प्रभाव है। नियमित अभ्यास से व्यक्ति की पूरी जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन आता है।

रिश्तों में सुधार

राम नाम का जप करने वाला व्यक्ति स्वाभाविक रूप से धैर्यवान और करुणाशील हो जाता है। उसके व्यवहार में मिठास आ जाती है और रिश्तों में सुधार होता है। यह इसलिए होता है कि राम तत्व प्रेम और करुणा का स्वरूप है।

निष्कर्ष – कैवल्य की प्राप्ति

राम नाम में छुपी शांति वास्तव में हमारे ही स्वरूप की शांति है। यह नाम हमें बाहर से कुछ नहीं देता, बल्कि हमारे भीतर के सत्य को प्रकट करता है। जैसे सूर्य बादलों के हटने पर प्रकट होता है, वैसे ही राम नाम के निरंतर स्मरण से मन के विकार हट जाते हैं और हमारा वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है।

यही कैवल्य की अवस्था है – जहां केवल एक ही सत्य शेष रह जाता है। उस अवस्था में न कोई जपने वाला होता है, न जप, न राम नाम – केवल वह तत्व होता है जो सदा से था, है और रहेगा।

माँ शून्य के शब्दों में, “राम नाम कोई बाहरी साधना नहीं है, बल्कि अपने स्वरूप में वापस लौटने का मार्ग है।” यह मार्ग सभी के लिए खुला है और पूर्णतः निःशुल्क है, क्योंकि सत्य की कोई कीमत नहीं होती।

जब हृदय से यह पुकार उठती है – “हे राम, हे राम” – तो समझ लेना चाहिए कि आत्मा अपने मूल स्रोत को पुकार रही है। यही पुकार एक दिन पूर्ण हो जाती है, और साधक राम में, राम साधक में विलीन हो जाता है।

बुद्ध पूर्णिमा: आत्म बोध और करुणा का पावन दिवस

बुद्ध पूर्णिमा: आत्म बोध और करुणा का पावन दिवस

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः

परिचय

बुद्ध पूर्णिमा, वैशाख माह की पूर्णिमा, मानवता के महान गुरु गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ा एक अत्यंत पावन दिवस है। इस एक ही दिन तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं – गौतम बुद्ध का जन्म, उनका बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करना, और उनका महापरिनिर्वाण। यह त्रिविध संयोग इस दिन को विश्व भर के अनुयायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बनाता है।

बुद्ध पूर्णिमा केवल बौद्ध धर्म तक ही सीमित नहीं है। यह सभी साधकों के लिए, चाहे वे ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, कर्म मार्ग या योग मार्ग का अनुसरण करते हों, एक प्रेरणादायक दिन है। बुद्ध के संदेश – करुणा, अहिंसा, आत्म-साक्षात्कार और मध्यम मार्ग – सार्वभौमिक हैं और सभी मार्गों के लिए प्रासंगिक हैं।

भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु-शिष्य संबंध का विशेष महत्व रहा है, और बुद्ध पूर्णिमा इस परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह वह दिन है जब शिष्य अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है, और गुरु द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान का स्मरण करता है। तथागत बुद्ध ने हमें सिखाया कि हर व्यक्ति अपने भीतर ज्ञान का प्रकाश जला सकता है, और यही सच्चा आत्म-बोध है।

मां शून्य: ज्ञान मार्ग की प्रमुख प्रतिनिधि

मां शून्य ज्ञान मार्ग की प्रमुख प्रतिनिधि हैं, जिनका जीवन अद्वैत और वेदांत के सनातन ज्ञान को समकालीन संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए समर्पित है। उनकी शिक्षण शैली की विशेषता यह है कि वे गहन आध्यात्मिक सिद्धांतों को इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं कि साधारण व्यक्ति भी उन्हें आसानी से ग्रहण कर सके।

जटिल दार्शनिक अवधारणाओं को सरलता से समझाने की उनकी अद्वितीय क्षमता ने अनेक साधकों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाया है। उनका मानना है कि “ज्ञान” केवल पुस्तकीय नहीं, बल्कि अनुभवात्मक होना चाहिए, जिसे जीवन में उतारा जा सके।

त्रिज्ञान पद्धति – आत्म ज्ञान, माया का ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान – के माध्यम से मां शून्य साधकों को उनके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराती हैं। गुरु क्षेत्र के आशीर्वाद से प्रेरित होकर उन्होंने मेरठ में कैवल्याश्रम की स्थापना की, जो आज आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया है।

धम्मपद व्याख्यान गाथा के माध्यम से बुद्ध पूर्णिमा का महत्व

इस बुद्ध पूर्णिमा पर, मां शून्य ने धम्मपद व्याख्यान गाथा के माध्यम से बुद्ध के अमूल्य उपदेशों को समझाया है। धम्मपद, जिसे ऐसो धम्मो सनंतनो भी कहा जाता है (जिसका अर्थ है “यही सनातन धर्म है”), बौद्ध धर्म के सर्वाधिक प्रतिष्ठित ग्रंथों में से एक है। मां शून्य द्वारा बताया गया है कि यह ग्रंथ 26 वर्गों में विभाजित है और पाली भाषा में 423 गाथाओं का संग्रह है।

मां शून्य हमेशा बताती हैं कि किसी भी ग्रंथ का वास्तविक महत्व आत्म-ज्ञान के बाद ही समझ में आता है। अपने धम्मपद व्याख्यान में, उन्होंने कहा:

“ग्रंथों का महत्व आत्म ज्ञान के बाद है। किसी भी ग्रंथ को आप पढ़ेंगे तो उसके जो अर्थ निकल के आएगा, जो बोध, जो समझ निकल के आएगी वो आत्म ज्ञान के बाद। जो भी ग्रंथ है वो आत्म ज्ञान के बाद पढ़ने में उनका आनंद कई गुना बढ़ जाता है।”

यह बात बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दिन हमें याद दिलाता है कि गौतम बुद्ध ने भी पहले स्वयं को जाना, फिर जगत को।

मन की शुद्धि: गौतम बुद्ध का मूल संदेश

मां शून्य ने धम्मपद की पहली गाथा के माध्यम से बताया है कि गौतम बुद्ध का सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण संदेश मन की शुद्धि है। पहली गाथा में बुद्ध कहते हैं:

“मन सभी प्रवृत्तियों का मालिक है या अगुवा है। मन ही कारण है सभी प्रवृत्तियों का।”

मां शून्य ने इस गाथा का विश्लेषण करते हुए बताया कि चित्त या मन से ही सब कुछ निर्मित है – जगत, शरीर, विचार, इच्छाएँ, कल्पनाएँ – सब कुछ। वे कहती हैं:

“जब कोई व्यक्ति अपने मन को मैला करके, अशुद्ध चित्त से, कोई वाणी बोलता है या कर्म करता है, तब दुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेते हैं जैसे गाड़ी के चक्के बैल के पैरों के पीछे चलते हैं।”

मां शून्य बताती हैं कि बुद्ध का यह प्रथम वार चित्त के शुद्धिकरण पर है। और यही त्रि-ज्ञान साधना में भी किया जाता है – साक्षी भाव में रहकर मन द्वारा निर्मित भावों, विचारों, इच्छाओं और कल्पनाओं के साक्षी बनना।

दूसरी गाथा: शुद्ध मन का फल

मां शून्य ने अपने व्याख्यान में बताया कि दूसरी गाथा में बुद्ध के अनुसार:

“जैसे शरीर के साथ छाया चलती रहती है, इसी तरह सुख भी पीछे-पीछे चला है, लेकिन किसके? जिसने अपने मन को शुद्ध कर लिया है।”

मां शून्य इस गाथा की व्याख्या करते हुए बताती हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने मन को उजाला रखकर जीवन जीता है, अर्थात जिसके मन में कोई मैल नहीं है, जिसने स्वयं को जान लिया है, जो अपने स्वभाव पर स्थित हो गया है, उसके द्वारा जो भी किया जाएगा, उसके परिणामस्वरूप सुख स्वतः ही प्राप्त होगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे शरीर के साथ उसकी छाया चलती है।

वैर की शांति: द्वंद्व से परे

मां शून्य ने चौथी गाथा के माध्यम से वैर से मुक्ति का मार्ग समझाया है। इस गाथा में गौतम बुद्ध कहते हैं:

“मुझे कोसा, मुझे मारा, मुझे हराया, मुझे लूटा – जो मन में ऐसी गांठें नहीं बांधते हैं, उनका वैर शांत हो जाता है।”

मां शून्य ने समझाया कि यह गांठ खोलना इतना आसान नहीं होता। जिसमें जितना ज्यादा अहंकार या अहम् प्रवृत्ति होती है, उसकी गांठें उतनी ही टाइट लगी होती हैं। मां शून्य ने कहा है:

“हम अक्सर अपने दुखों का कारण दूसरों को समझ लेते हैं – उसने मुझे बेइज्जत कर दिया, उसने मुझे मारा, उसने मेरे साथ बुरा किया। इन गांठों से हमारा वैर कभी शांत नहीं होता।”

मां शून्य ने एक सूत्र दिया है – “न मैं हूँ, न ही मेरा है, न ही अहम् है, न ही कर्ता।” तब फिर बेइज्जती किसकी हुई? लूटा किसे गया? मारा किसे गया? मैं तो मात्र दृष्टा हूँ। उनके अनुसार इस बोध से सारी गांठें ढीली पड़ जाती हैं और खुल जाती हैं।

मृत्यु का स्मरण: जीवन की सार्थकता

बुद्ध पूर्णिमा के संदर्भ में, मां शून्य ने मृत्यु के स्मरण का महत्व भी बताया है। उन्होंने कहा:

“संपूर्ण ज्ञान कार्यक्रम में मृत्यु की तैयारी का एक प्रयोग डाला था और मैं बराबर यह बात अक्सर कहती हूँ – मृत्यु को याद करो। मृत्यु को जो याद करता है, मृत्यु को याद रखने वाले को कभी मोह नहीं पकड़ता, कभी भी दुख नहीं पकड़ता, झगड़ा नहीं पड़ता, क्रोध नहीं पकड़ता।”

मां शून्य के अनुसार, जो मृत्यु को याद रखता है, वह बहुत सारी चीजों से सहज भाव से बाहर निकल जाता है। यहां प्रयास भी नहीं करना पड़ता। संसार के सारे झगड़े शांत हो जाते हैं, क्योंकि मृत्यु इन सारे झगड़ों को एक क्षण में ही शांत कर देगी।

मां शून्य ने महाभारत का एक प्रसंग भी बताया, जहां युधिष्ठिर ने कहा था कि जगत में सबसे ज्यादा आश्चर्य वाली बात यह है कि रोज ही मृत्यु होती है, रोज ही मनुष्य देखता है, और फिर भी भूल जाता है कि मेरी भी मृत्यु होनी है।

सातवीं गाथा: मध्यम मार्ग और संयम

मां शून्य ने सातवीं गाथा के माध्यम से बुद्ध के प्रसिद्ध मध्यम मार्ग और संयम के महत्व को समझाया है। इस गाथा में बुद्ध कहते हैं:

“जो शुभ-शुभ को देखकर ही बिहार करते हैं, काम-भोग के जीवन में रत रहते हैं, इंद्रियों से असंयमी हैं, भोजन की उचित मात्रा का ज्ञान नहीं रखते, जो आलसी हैं, उन्हें मार वैसे ही गिरा देता है जैसे वायु दुर्बल वृक्ष को।”

मां शून्य ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए जीवन के यथार्थ को समझाया:

“हम अक्सर भूल जाते हैं कि यह जीवन द्वैत है। यहां सुख और दुख दोनों होंगे। यहां ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सिर्फ सुख और सुख हो। आप अपनी पूरी ताकत लगा दीजिए, सारे साम-दाम-दंड-भेद लगा लीजिए, सारे उपाय कर लीजिए, लेकिन सुख और दुख दोनों ही होंगे।”

बुद्ध ने ठीक इसी कारण मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था – न अति भोग में लिप्त होना, न अति त्याग में। मां शून्य ने भोजन में संयम और आलस के त्याग पर विशेष जोर दिया है। उनके अनुसार, हर शरीर स्वयं संकेत देता है कि कब भूख लगी है और कब खाना चाहिए। साथ ही शरीर यह भी बताता है कि अब बस हो गया। लेकिन हम इन प्राकृतिक संकेतों की अनदेखी करते हैं।

मां शून्य बताती हैं कि आलस और अनावश्यक कार्यों का त्याग में अंतर समझना चाहिए। जब कोई आत्मज्ञानी अपनी रुचि का कार्य करता है, तो उसे न भूख लगती है, न प्यास, न आराम की चिंता होती है, और वह ऊर्जा से भरपूर और प्रसन्न रहता है। यह आलस नहीं, बल्कि एकाग्रता का परिणाम है।

निष्कर्ष: बुद्ध पूर्णिमा – सर्व पथों का मिलन बिंदु

बुद्ध पूर्णिमा हमें गुरु-शिष्य परंपरा के महत्व के साथ-साथ जीवन के समग्र दृष्टिकोण को समझने की प्रेरणा देती है। मां शून्य के धम्मपद व्याख्यान से हमें यह गहरी समझ मिलती है कि गौतम बुद्ध के उपदेश किसी एक मार्ग तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे सभी मार्गों के सार को समेटे हुए हैं।

बुद्ध ने ज्ञान मार्ग के माध्यम से स्वयं को जानने का मार्ग दिखाया, भक्ति मार्ग के लिए करुणा और मैत्री का संदेश दिया, कर्म मार्ग के लिए सम्यक कर्म का उपदेश दिया, और योग मार्ग के लिए ध्यान और एकाग्रता की विधि बताई। उनके उपदेश सनातन धर्म के मूल तत्वों से अभिन्न हैं, जिन्हें मां शून्य अपने व्याख्यानों में समकालीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हैं।

मां शून्य की धम्मपद व्याख्यानों से प्रेरित होकर, हम बुद्ध पूर्णिमा पर संकल्प लें कि:

  1. अपने मन को शुद्ध रखेंगे और विचारों के प्रति साक्षी भाव विकसित करेंगे।
  2. करुणा और मैत्री भाव से सभी प्राणियों के प्रति व्यवहार करेंगे।
  3. वैर से मुक्त होकर, द्वेष और अहंकार को त्यागेंगे।
  4. मृत्यु के स्मरण से जीवन की नश्वरता को समझकर, हर क्षण का महत्व जानेंगे।
  5. इंद्रियों पर संयम रखेंगे और मध्यम मार्ग का अनुसरण करेंगे।
  6. अपने आंतरिक बुद्धत्व को पहचानेंगे और उससे जुड़ेंगे।

मां शून्य हमें सिखाती हैं कि हर व्यक्ति के भीतर बुद्धत्व निहित है, और हमारा उद्देश्य है इस अंतर्निहित ज्योति को जगाना। बुद्ध पूर्णिमा हमें अपने वास्तविक स्वरूप की ओर यात्रा आरंभ करने या उसे गहन करने का अवसर प्रदान करती है – चाहे हम किसी भी मार्ग का अनुसरण करते हों।