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बुद्ध पूर्णिमा: आत्म बोध और करुणा का पावन दिवस

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः

परिचय

बुद्ध पूर्णिमा, वैशाख माह की पूर्णिमा, मानवता के महान गुरु गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ा एक अत्यंत पावन दिवस है। इस एक ही दिन तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं – गौतम बुद्ध का जन्म, उनका बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करना, और उनका महापरिनिर्वाण। यह त्रिविध संयोग इस दिन को विश्व भर के अनुयायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बनाता है।

बुद्ध पूर्णिमा केवल बौद्ध धर्म तक ही सीमित नहीं है। यह सभी साधकों के लिए, चाहे वे ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, कर्म मार्ग या योग मार्ग का अनुसरण करते हों, एक प्रेरणादायक दिन है। बुद्ध के संदेश – करुणा, अहिंसा, आत्म-साक्षात्कार और मध्यम मार्ग – सार्वभौमिक हैं और सभी मार्गों के लिए प्रासंगिक हैं।

भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु-शिष्य संबंध का विशेष महत्व रहा है, और बुद्ध पूर्णिमा इस परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह वह दिन है जब शिष्य अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है, और गुरु द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान का स्मरण करता है। तथागत बुद्ध ने हमें सिखाया कि हर व्यक्ति अपने भीतर ज्ञान का प्रकाश जला सकता है, और यही सच्चा आत्म-बोध है।

मां शून्य: ज्ञान मार्ग की प्रमुख प्रतिनिधि

मां शून्य ज्ञान मार्ग की प्रमुख प्रतिनिधि हैं, जिनका जीवन अद्वैत और वेदांत के सनातन ज्ञान को समकालीन संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए समर्पित है। उनकी शिक्षण शैली की विशेषता यह है कि वे गहन आध्यात्मिक सिद्धांतों को इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं कि साधारण व्यक्ति भी उन्हें आसानी से ग्रहण कर सके।

जटिल दार्शनिक अवधारणाओं को सरलता से समझाने की उनकी अद्वितीय क्षमता ने अनेक साधकों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाया है। उनका मानना है कि “ज्ञान” केवल पुस्तकीय नहीं, बल्कि अनुभवात्मक होना चाहिए, जिसे जीवन में उतारा जा सके।

त्रिज्ञान पद्धति – आत्म ज्ञान, माया का ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान – के माध्यम से मां शून्य साधकों को उनके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराती हैं। गुरु क्षेत्र के आशीर्वाद से प्रेरित होकर उन्होंने मेरठ में कैवल्याश्रम की स्थापना की, जो आज आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया है।

धम्मपद व्याख्यान गाथा के माध्यम से बुद्ध पूर्णिमा का महत्व

इस बुद्ध पूर्णिमा पर, मां शून्य ने धम्मपद व्याख्यान गाथा के माध्यम से बुद्ध के अमूल्य उपदेशों को समझाया है। धम्मपद, जिसे ऐसो धम्मो सनंतनो भी कहा जाता है (जिसका अर्थ है “यही सनातन धर्म है”), बौद्ध धर्म के सर्वाधिक प्रतिष्ठित ग्रंथों में से एक है। मां शून्य द्वारा बताया गया है कि यह ग्रंथ 26 वर्गों में विभाजित है और पाली भाषा में 423 गाथाओं का संग्रह है।

मां शून्य हमेशा बताती हैं कि किसी भी ग्रंथ का वास्तविक महत्व आत्म-ज्ञान के बाद ही समझ में आता है। अपने धम्मपद व्याख्यान में, उन्होंने कहा:

“ग्रंथों का महत्व आत्म ज्ञान के बाद है। किसी भी ग्रंथ को आप पढ़ेंगे तो उसके जो अर्थ निकल के आएगा, जो बोध, जो समझ निकल के आएगी वो आत्म ज्ञान के बाद। जो भी ग्रंथ है वो आत्म ज्ञान के बाद पढ़ने में उनका आनंद कई गुना बढ़ जाता है।”

यह बात बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दिन हमें याद दिलाता है कि गौतम बुद्ध ने भी पहले स्वयं को जाना, फिर जगत को।

मन की शुद्धि: गौतम बुद्ध का मूल संदेश

मां शून्य ने धम्मपद की पहली गाथा के माध्यम से बताया है कि गौतम बुद्ध का सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण संदेश मन की शुद्धि है। पहली गाथा में बुद्ध कहते हैं:

“मन सभी प्रवृत्तियों का मालिक है या अगुवा है। मन ही कारण है सभी प्रवृत्तियों का।”

मां शून्य ने इस गाथा का विश्लेषण करते हुए बताया कि चित्त या मन से ही सब कुछ निर्मित है – जगत, शरीर, विचार, इच्छाएँ, कल्पनाएँ – सब कुछ। वे कहती हैं:

“जब कोई व्यक्ति अपने मन को मैला करके, अशुद्ध चित्त से, कोई वाणी बोलता है या कर्म करता है, तब दुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेते हैं जैसे गाड़ी के चक्के बैल के पैरों के पीछे चलते हैं।”

मां शून्य बताती हैं कि बुद्ध का यह प्रथम वार चित्त के शुद्धिकरण पर है। और यही त्रि-ज्ञान साधना में भी किया जाता है – साक्षी भाव में रहकर मन द्वारा निर्मित भावों, विचारों, इच्छाओं और कल्पनाओं के साक्षी बनना।

दूसरी गाथा: शुद्ध मन का फल

मां शून्य ने अपने व्याख्यान में बताया कि दूसरी गाथा में बुद्ध के अनुसार:

“जैसे शरीर के साथ छाया चलती रहती है, इसी तरह सुख भी पीछे-पीछे चला है, लेकिन किसके? जिसने अपने मन को शुद्ध कर लिया है।”

मां शून्य इस गाथा की व्याख्या करते हुए बताती हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने मन को उजाला रखकर जीवन जीता है, अर्थात जिसके मन में कोई मैल नहीं है, जिसने स्वयं को जान लिया है, जो अपने स्वभाव पर स्थित हो गया है, उसके द्वारा जो भी किया जाएगा, उसके परिणामस्वरूप सुख स्वतः ही प्राप्त होगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे शरीर के साथ उसकी छाया चलती है।

वैर की शांति: द्वंद्व से परे

मां शून्य ने चौथी गाथा के माध्यम से वैर से मुक्ति का मार्ग समझाया है। इस गाथा में गौतम बुद्ध कहते हैं:

“मुझे कोसा, मुझे मारा, मुझे हराया, मुझे लूटा – जो मन में ऐसी गांठें नहीं बांधते हैं, उनका वैर शांत हो जाता है।”

मां शून्य ने समझाया कि यह गांठ खोलना इतना आसान नहीं होता। जिसमें जितना ज्यादा अहंकार या अहम् प्रवृत्ति होती है, उसकी गांठें उतनी ही टाइट लगी होती हैं। मां शून्य ने कहा है:

“हम अक्सर अपने दुखों का कारण दूसरों को समझ लेते हैं – उसने मुझे बेइज्जत कर दिया, उसने मुझे मारा, उसने मेरे साथ बुरा किया। इन गांठों से हमारा वैर कभी शांत नहीं होता।”

मां शून्य ने एक सूत्र दिया है – “न मैं हूँ, न ही मेरा है, न ही अहम् है, न ही कर्ता।” तब फिर बेइज्जती किसकी हुई? लूटा किसे गया? मारा किसे गया? मैं तो मात्र दृष्टा हूँ। उनके अनुसार इस बोध से सारी गांठें ढीली पड़ जाती हैं और खुल जाती हैं।

मृत्यु का स्मरण: जीवन की सार्थकता

बुद्ध पूर्णिमा के संदर्भ में, मां शून्य ने मृत्यु के स्मरण का महत्व भी बताया है। उन्होंने कहा:

“संपूर्ण ज्ञान कार्यक्रम में मृत्यु की तैयारी का एक प्रयोग डाला था और मैं बराबर यह बात अक्सर कहती हूँ – मृत्यु को याद करो। मृत्यु को जो याद करता है, मृत्यु को याद रखने वाले को कभी मोह नहीं पकड़ता, कभी भी दुख नहीं पकड़ता, झगड़ा नहीं पड़ता, क्रोध नहीं पकड़ता।”

मां शून्य के अनुसार, जो मृत्यु को याद रखता है, वह बहुत सारी चीजों से सहज भाव से बाहर निकल जाता है। यहां प्रयास भी नहीं करना पड़ता। संसार के सारे झगड़े शांत हो जाते हैं, क्योंकि मृत्यु इन सारे झगड़ों को एक क्षण में ही शांत कर देगी।

मां शून्य ने महाभारत का एक प्रसंग भी बताया, जहां युधिष्ठिर ने कहा था कि जगत में सबसे ज्यादा आश्चर्य वाली बात यह है कि रोज ही मृत्यु होती है, रोज ही मनुष्य देखता है, और फिर भी भूल जाता है कि मेरी भी मृत्यु होनी है।

सातवीं गाथा: मध्यम मार्ग और संयम

मां शून्य ने सातवीं गाथा के माध्यम से बुद्ध के प्रसिद्ध मध्यम मार्ग और संयम के महत्व को समझाया है। इस गाथा में बुद्ध कहते हैं:

“जो शुभ-शुभ को देखकर ही बिहार करते हैं, काम-भोग के जीवन में रत रहते हैं, इंद्रियों से असंयमी हैं, भोजन की उचित मात्रा का ज्ञान नहीं रखते, जो आलसी हैं, उन्हें मार वैसे ही गिरा देता है जैसे वायु दुर्बल वृक्ष को।”

मां शून्य ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए जीवन के यथार्थ को समझाया:

“हम अक्सर भूल जाते हैं कि यह जीवन द्वैत है। यहां सुख और दुख दोनों होंगे। यहां ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सिर्फ सुख और सुख हो। आप अपनी पूरी ताकत लगा दीजिए, सारे साम-दाम-दंड-भेद लगा लीजिए, सारे उपाय कर लीजिए, लेकिन सुख और दुख दोनों ही होंगे।”

बुद्ध ने ठीक इसी कारण मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था – न अति भोग में लिप्त होना, न अति त्याग में। मां शून्य ने भोजन में संयम और आलस के त्याग पर विशेष जोर दिया है। उनके अनुसार, हर शरीर स्वयं संकेत देता है कि कब भूख लगी है और कब खाना चाहिए। साथ ही शरीर यह भी बताता है कि अब बस हो गया। लेकिन हम इन प्राकृतिक संकेतों की अनदेखी करते हैं।

मां शून्य बताती हैं कि आलस और अनावश्यक कार्यों का त्याग में अंतर समझना चाहिए। जब कोई आत्मज्ञानी अपनी रुचि का कार्य करता है, तो उसे न भूख लगती है, न प्यास, न आराम की चिंता होती है, और वह ऊर्जा से भरपूर और प्रसन्न रहता है। यह आलस नहीं, बल्कि एकाग्रता का परिणाम है।

निष्कर्ष: बुद्ध पूर्णिमा – सर्व पथों का मिलन बिंदु

बुद्ध पूर्णिमा हमें गुरु-शिष्य परंपरा के महत्व के साथ-साथ जीवन के समग्र दृष्टिकोण को समझने की प्रेरणा देती है। मां शून्य के धम्मपद व्याख्यान से हमें यह गहरी समझ मिलती है कि गौतम बुद्ध के उपदेश किसी एक मार्ग तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे सभी मार्गों के सार को समेटे हुए हैं।

बुद्ध ने ज्ञान मार्ग के माध्यम से स्वयं को जानने का मार्ग दिखाया, भक्ति मार्ग के लिए करुणा और मैत्री का संदेश दिया, कर्म मार्ग के लिए सम्यक कर्म का उपदेश दिया, और योग मार्ग के लिए ध्यान और एकाग्रता की विधि बताई। उनके उपदेश सनातन धर्म के मूल तत्वों से अभिन्न हैं, जिन्हें मां शून्य अपने व्याख्यानों में समकालीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हैं।

मां शून्य की धम्मपद व्याख्यानों से प्रेरित होकर, हम बुद्ध पूर्णिमा पर संकल्प लें कि:

  1. अपने मन को शुद्ध रखेंगे और विचारों के प्रति साक्षी भाव विकसित करेंगे।
  2. करुणा और मैत्री भाव से सभी प्राणियों के प्रति व्यवहार करेंगे।
  3. वैर से मुक्त होकर, द्वेष और अहंकार को त्यागेंगे।
  4. मृत्यु के स्मरण से जीवन की नश्वरता को समझकर, हर क्षण का महत्व जानेंगे।
  5. इंद्रियों पर संयम रखेंगे और मध्यम मार्ग का अनुसरण करेंगे।
  6. अपने आंतरिक बुद्धत्व को पहचानेंगे और उससे जुड़ेंगे।

मां शून्य हमें सिखाती हैं कि हर व्यक्ति के भीतर बुद्धत्व निहित है, और हमारा उद्देश्य है इस अंतर्निहित ज्योति को जगाना। बुद्ध पूर्णिमा हमें अपने वास्तविक स्वरूप की ओर यात्रा आरंभ करने या उसे गहन करने का अवसर प्रदान करती है – चाहे हम किसी भी मार्ग का अनुसरण करते हों।

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शून्य बोधिसत्व

कैवल्याश्रम मेरठ के संस्थापक एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शक। माँ शून्य के मार्गदर्शन में अद्वैत वेदांत के अनुभवी अध्येता और त्रिज्ञान कार्यक्रम के प्रणेता। साधकों को आत्म-साक्षात्कार का सरल और प्रत्यक्ष मार्ग दिखा रहे हैं। जीवन मंत्र: "स्वयं को जानो, सृष्टि को जानो, ब्रह्म को जानो।

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