हे राम, हे राम – यह पुकार केवल भावना नहीं, अपितु सत्य की खोज है। जब मन की गहराई से यह ध्वनि उठती है, तो वह केवल नाम नहीं, बल्कि उस परम सत्य का आह्वान होता है जो हमारे भीतर ही विराजमान है। जगत में सत्य का नाम यदि कोई है, तो वह राम ही है – न केवल एक व्यक्तित्व के रूप में, बल्कि उस चैतन्य तत्व के रूप में जो समस्त अस्तित्व का आधार है।
आधुनिक युग में जब मनुष्य तनाव और अशांति से घिरा रहता है, तब राम नाम की शरण में आकर वह उस अनंत शांति का अनुभव कर सकता है जो उसके भीतर ही छुपी हुई है। यह शांति कोई बाहरी वस्तु नहीं है जिसे प्राप्त करना हो, बल्कि हमारे स्वयं के स्वरूप की अभिव्यक्ति है।
अद्वैत दृष्टिकोण से राम नाम
राम = सत्-चित्-आनंद का स्वरूप
वेदांत दर्शन के अनुसार राम केवल अयोध्या के राजा नहीं हैं, बल्कि उस परब्रह्म के प्रतीक हैं जो सत्-चित्-आनंद स्वरूप है। ‘रा’ अक्षर अग्नि तत्व का प्रतीक है जो अज्ञान को जलाता है, और ‘म’ अक्षर उस परम तत्व का द्योतक है जो सभी में व्याप्त है। जब हम राम नाम का जप करते हैं, तो वास्तव में हम अपने ही सत्स्वरूप का स्मरण कर रहे होते हैं।
नाम और नामी की अभेदता
अद्वैत सिद्धांत के अनुसार नाम और नामी में कोई भेद नहीं है। जैसे समुद्र और उसकी लहरें अलग नहीं हैं, वैसे ही राम नाम और राम तत्व में कोई अंतर नहीं है। जब साधक पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ राम नाम का जप करता है, तो वह धीरे-धीरे उस तत्व में विलीन हो जाता है।
शब्द ब्रह्म की शक्ति
वेदों में कहा गया है – “वाग्वै ब्रह्म” – वाणी ही ब्रह्म है। राम नाम में वह दिव्य कंपन है जो हमारी चेतना को उच्च आयामों तक ले जाता है। यह केवल ध्वनि नहीं है, बल्कि उस महान शक्ति का प्रकटीकरण है जो सृष्टि के मूल में विद्यमान है।
ज्ञान मार्गीय विवेचन
साक्षी भाव में राम नाम
ज्ञान मार्ग में साधक को साक्षी भाव में स्थित होकर सभी क्रियाओं को देखना सिखाया जाता है। राम नाम का जप भी इसी साक्षी भाव में करना चाहिए। जब हम यह भावना करते हैं कि “मैं राम नाम जप रहा हूं” तो यह द्वैत है, लेकिन जब यह अनुभव होता है कि “राम नाम स्वयं अपना जप कर रहा है” तो यह अद्वैत की अनुभूति है।
चित्त शुद्धि का साधन
मन में उठने वाले विकारों का शमन राम नाम के द्वारा सहज रूप से होता है। जैसे सूर्य के उदय होने पर अंधकार स्वतः समाप्त हो जाता है, वैसे ही राम नाम के स्मरण से मन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं। यह कोई कृत्रिम प्रक्रिया नहीं है, बल्कि सत्य की उपस्थिति में असत्य का स्वाभाविक विलय है।
निर्विकल्प समाधि में राम तत्व
जब साधक निर्विकल्प समाधि में प्रवेश करता है, तो वहां न तो जपने वाला रह जाता है, न जप, और न ही राम नाम। केवल वह तत्व शेष रहता है जो इन सबका आधार है। इस अवस्था में राम नाम और स्वयं का भेद समाप्त हो जाता है।
हंस प्रतीकवाद और राम तत्व
परमहंस की उड़ान
जैसे हंस आकाश में निर्भय होकर उड़ता है, वैसे ही राम नाम का आश्रय लेकर साधक की चेतना सभी सीमाओं से मुक्त हो जाती है। परमहंस अवस्था में पहुंचा साधक निरंतर “सो हम्” की अनुभूति में स्थित रहता है, जहां राम नाम का जप श्वास-प्रश्वास के साथ स्वाभाविक रूप से चलता रहता है।
नीर-क्षीर विवेक
जैसे हंस दूध और पानी के मिश्रण में से केवल दूध को ग्रहण करता है, वैसे ही राम नाम का स्मरण करने वाला साधक संसार की मिश्रित परिस्थितियों में भी केवल सत्य तत्व को ग्रहण करता है। यह विवेक धीरे-धीरे इतना तीक्ष्ण हो जाता है कि वह राम और अराम, सत्य और असत्य के बीच सहज भेद कर सकता है।
बुद्ध तत्व और राम चेतना
निर्वाण और राम लोक की समानता
बुद्ध द्वारा वर्णित निर्वाण और वेदांत में वर्णित राम लोक वास्तव में एक ही तत्व के भिन्न नाम हैं। दोनों में मुख्य बात यह है कि व्यक्तिगत अहंकार का पूर्ण विलय हो जाता है और केवल शुद्ध चैतन्य शेष रह जाता है। राम नाम का निरंतर स्मरण इसी अवस्था तक पहुंचने का सरल उपाय है।
मध्यम मार्ग में राम नाम
बुद्ध के मध्यम मार्ग के समान ही राम नाम का जप भी अति और न्यूनता से बचकर संतुलित रूप में करना चाहिए। न तो जबरदस्ती का जप और न ही पूर्ण उपेक्षा। जैसे वीणा के तार न अधिक कसे हों और न अधिक ढीले, वैसे ही राम नाम का स्मरण भी सहज और संतुलित होना चाहिए।
व्यावहारिक साधना
दैनिक जीवन में राम नाम का प्रयोग
राम नाम का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसे कभी भी, कहीं भी किया जा सकता है। चाहे आप काम कर रहे हों, चल रहे हों, या आराम कर रहे हों – हर समय मन में राम नाम की धुन बनी रह सकती है। प्रारंभ में यह सचेत प्रयास होगा, लेकिन धीरे-धीरे यह स्वाभाविक हो जाता है।
त्रिज्ञान कार्यक्रम में राम तत्व
कैवल्याश्रम के त्रिज्ञान कार्यक्रम में, माँ शून्य के मार्गदर्शन में, साधक यह समझते हैं कि राम नाम केवल भक्ति का विषय नहीं है, बल्कि ज्ञान मार्ग में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह कार्यक्रम पूर्णतः निःशुल्क है और हर साधक को राम तत्व की अनुभूति का अवसर प्रदान करता है।
त्रिज्ञान कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए यहाँ क्लिक करें और राम तत्व की गहरी समझ के साथ अपनी आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ करें। इस कार्यक्रम में आप सीखेंगे कि कैसे राम नाम ज्ञान मार्ग का आधार बनता है और कैसे इसके माध्यम से कैवल्य अवस्था तक पहुंचा जा सकता है।
सरल विधि: श्वास के साथ राम नाम
प्रारंभिक अभ्यास:
शांत स्थान पर आराम से बैठें
श्वास लेते समय मन में ‘रा’ कहें
श्वास छोड़ते समय मन में ‘म’ कहें
धीरे-धीरे यह प्रक्रिया स्वाभाविक हो जाएगी
उन्नत अभ्यास:
राम नाम के साथ-साथ साक्षी भाव का विकास करें
यह देखें कि कौन जप कर रहा है
जपने वाले, जप और राम नाम की एकता का अनुभव करें
प्रगतिशील अनुभव के चरण
प्रथम चरण: राम नाम में मन की एकाग्रता द्वितीय चरण: राम नाम के साथ आनंद की अनुभूति तृतीय चरण: राम नाम में स्वयं का विलय चतुर्थ चरण: राम नाम और स्वयं की अभेदता का अनुभव पंचम चरण: निरंतर राम चेतना में स्थिति
आधुनिक जीवन में राम नाम की प्रासंगिकता
आज के तनावपूर्ण युग में राम नाम एक अमोघ औषधि है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी यह सिद्ध हो गया है कि मंत्र जप से मस्तिष्क में सकारात्मक तरंगों का प्रवाह होता है। राम नाम की विशेषता यह है कि यह न केवल मानसिक शांति देता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का भी साधन है।
तनाव मुक्ति का उपाय
जब मन चिंताओं से भरा हो, तो राम नाम का स्मरण तुरंत राहत देता है। यह कोई मानसिक सुझाव नहीं है, बल्कि राम नाम में निहित दिव्य शक्ति का प्रभाव है। नियमित अभ्यास से व्यक्ति की पूरी जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन आता है।
रिश्तों में सुधार
राम नाम का जप करने वाला व्यक्ति स्वाभाविक रूप से धैर्यवान और करुणाशील हो जाता है। उसके व्यवहार में मिठास आ जाती है और रिश्तों में सुधार होता है। यह इसलिए होता है कि राम तत्व प्रेम और करुणा का स्वरूप है।
निष्कर्ष – कैवल्य की प्राप्ति
राम नाम में छुपी शांति वास्तव में हमारे ही स्वरूप की शांति है। यह नाम हमें बाहर से कुछ नहीं देता, बल्कि हमारे भीतर के सत्य को प्रकट करता है। जैसे सूर्य बादलों के हटने पर प्रकट होता है, वैसे ही राम नाम के निरंतर स्मरण से मन के विकार हट जाते हैं और हमारा वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है।
यही कैवल्य की अवस्था है – जहां केवल एक ही सत्य शेष रह जाता है। उस अवस्था में न कोई जपने वाला होता है, न जप, न राम नाम – केवल वह तत्व होता है जो सदा से था, है और रहेगा।
माँ शून्य के शब्दों में, “राम नाम कोई बाहरी साधना नहीं है, बल्कि अपने स्वरूप में वापस लौटने का मार्ग है।” यह मार्ग सभी के लिए खुला है और पूर्णतः निःशुल्क है, क्योंकि सत्य की कोई कीमत नहीं होती।
जब हृदय से यह पुकार उठती है – “हे राम, हे राम” – तो समझ लेना चाहिए कि आत्मा अपने मूल स्रोत को पुकार रही है। यही पुकार एक दिन पूर्ण हो जाती है, और साधक राम में, राम साधक में विलीन हो जाता है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
परिचय
बुद्ध पूर्णिमा, वैशाख माह की पूर्णिमा, मानवता के महान गुरु गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ा एक अत्यंत पावन दिवस है। इस एक ही दिन तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं – गौतम बुद्ध का जन्म, उनका बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करना, और उनका महापरिनिर्वाण। यह त्रिविध संयोग इस दिन को विश्व भर के अनुयायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बनाता है।
बुद्ध पूर्णिमा केवल बौद्ध धर्म तक ही सीमित नहीं है। यह सभी साधकों के लिए, चाहे वे ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, कर्म मार्ग या योग मार्ग का अनुसरण करते हों, एक प्रेरणादायक दिन है। बुद्ध के संदेश – करुणा, अहिंसा, आत्म-साक्षात्कार और मध्यम मार्ग – सार्वभौमिक हैं और सभी मार्गों के लिए प्रासंगिक हैं।
भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु-शिष्य संबंध का विशेष महत्व रहा है, और बुद्ध पूर्णिमा इस परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह वह दिन है जब शिष्य अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है, और गुरु द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान का स्मरण करता है। तथागत बुद्ध ने हमें सिखाया कि हर व्यक्ति अपने भीतर ज्ञान का प्रकाश जला सकता है, और यही सच्चा आत्म-बोध है।
मां शून्य: ज्ञान मार्ग की प्रमुख प्रतिनिधि
मां शून्य ज्ञान मार्ग की प्रमुख प्रतिनिधि हैं, जिनका जीवन अद्वैत और वेदांत के सनातन ज्ञान को समकालीन संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए समर्पित है। उनकी शिक्षण शैली की विशेषता यह है कि वे गहन आध्यात्मिक सिद्धांतों को इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं कि साधारण व्यक्ति भी उन्हें आसानी से ग्रहण कर सके।
जटिल दार्शनिक अवधारणाओं को सरलता से समझाने की उनकी अद्वितीय क्षमता ने अनेक साधकों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाया है। उनका मानना है कि “ज्ञान” केवल पुस्तकीय नहीं, बल्कि अनुभवात्मक होना चाहिए, जिसे जीवन में उतारा जा सके।
त्रिज्ञान पद्धति – आत्म ज्ञान, माया का ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान – के माध्यम से मां शून्य साधकों को उनके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराती हैं। गुरु क्षेत्र के आशीर्वाद से प्रेरित होकर उन्होंने मेरठ में कैवल्याश्रम की स्थापना की, जो आज आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया है।
धम्मपद व्याख्यान गाथा के माध्यम से बुद्ध पूर्णिमा का महत्व
इस बुद्ध पूर्णिमा पर, मां शून्य ने धम्मपद व्याख्यान गाथा के माध्यम से बुद्ध के अमूल्य उपदेशों को समझाया है। धम्मपद, जिसे ऐसो धम्मो सनंतनो भी कहा जाता है (जिसका अर्थ है “यही सनातन धर्म है”), बौद्ध धर्म के सर्वाधिक प्रतिष्ठित ग्रंथों में से एक है। मां शून्य द्वारा बताया गया है कि यह ग्रंथ 26 वर्गों में विभाजित है और पाली भाषा में 423 गाथाओं का संग्रह है।
मां शून्य हमेशा बताती हैं कि किसी भी ग्रंथ का वास्तविक महत्व आत्म-ज्ञान के बाद ही समझ में आता है। अपने धम्मपद व्याख्यान में, उन्होंने कहा:
“ग्रंथों का महत्व आत्म ज्ञान के बाद है। किसी भी ग्रंथ को आप पढ़ेंगे तो उसके जो अर्थ निकल के आएगा, जो बोध, जो समझ निकल के आएगी वो आत्म ज्ञान के बाद। जो भी ग्रंथ है वो आत्म ज्ञान के बाद पढ़ने में उनका आनंद कई गुना बढ़ जाता है।”
यह बात बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दिन हमें याद दिलाता है कि गौतम बुद्ध ने भी पहले स्वयं को जाना, फिर जगत को।
मन की शुद्धि: गौतम बुद्ध का मूल संदेश
मां शून्य ने धम्मपद की पहली गाथा के माध्यम से बताया है कि गौतम बुद्ध का सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण संदेश मन की शुद्धि है। पहली गाथा में बुद्ध कहते हैं:
“मन सभी प्रवृत्तियों का मालिक है या अगुवा है। मन ही कारण है सभी प्रवृत्तियों का।”
मां शून्य ने इस गाथा का विश्लेषण करते हुए बताया कि चित्त या मन से ही सब कुछ निर्मित है – जगत, शरीर, विचार, इच्छाएँ, कल्पनाएँ – सब कुछ। वे कहती हैं:
“जब कोई व्यक्ति अपने मन को मैला करके, अशुद्ध चित्त से, कोई वाणी बोलता है या कर्म करता है, तब दुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेते हैं जैसे गाड़ी के चक्के बैल के पैरों के पीछे चलते हैं।”
मां शून्य बताती हैं कि बुद्ध का यह प्रथम वार चित्त के शुद्धिकरण पर है। और यही त्रि-ज्ञान साधना में भी किया जाता है – साक्षी भाव में रहकर मन द्वारा निर्मित भावों, विचारों, इच्छाओं और कल्पनाओं के साक्षी बनना।
दूसरी गाथा: शुद्ध मन का फल
मां शून्य ने अपने व्याख्यान में बताया कि दूसरी गाथा में बुद्ध के अनुसार:
“जैसे शरीर के साथ छाया चलती रहती है, इसी तरह सुख भी पीछे-पीछे चला है, लेकिन किसके? जिसने अपने मन को शुद्ध कर लिया है।”
मां शून्य इस गाथा की व्याख्या करते हुए बताती हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने मन को उजाला रखकर जीवन जीता है, अर्थात जिसके मन में कोई मैल नहीं है, जिसने स्वयं को जान लिया है, जो अपने स्वभाव पर स्थित हो गया है, उसके द्वारा जो भी किया जाएगा, उसके परिणामस्वरूप सुख स्वतः ही प्राप्त होगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे शरीर के साथ उसकी छाया चलती है।
वैर की शांति: द्वंद्व से परे
मां शून्य ने चौथी गाथा के माध्यम से वैर से मुक्ति का मार्ग समझाया है। इस गाथा में गौतम बुद्ध कहते हैं:
“मुझे कोसा, मुझे मारा, मुझे हराया, मुझे लूटा – जो मन में ऐसी गांठें नहीं बांधते हैं, उनका वैर शांत हो जाता है।”
मां शून्य ने समझाया कि यह गांठ खोलना इतना आसान नहीं होता। जिसमें जितना ज्यादा अहंकार या अहम् प्रवृत्ति होती है, उसकी गांठें उतनी ही टाइट लगी होती हैं। मां शून्य ने कहा है:
“हम अक्सर अपने दुखों का कारण दूसरों को समझ लेते हैं – उसने मुझे बेइज्जत कर दिया, उसने मुझे मारा, उसने मेरे साथ बुरा किया। इन गांठों से हमारा वैर कभी शांत नहीं होता।”
मां शून्य ने एक सूत्र दिया है – “न मैं हूँ, न ही मेरा है, न ही अहम् है, न ही कर्ता।” तब फिर बेइज्जती किसकी हुई? लूटा किसे गया? मारा किसे गया? मैं तो मात्र दृष्टा हूँ। उनके अनुसार इस बोध से सारी गांठें ढीली पड़ जाती हैं और खुल जाती हैं।
मृत्यु का स्मरण: जीवन की सार्थकता
बुद्ध पूर्णिमा के संदर्भ में, मां शून्य ने मृत्यु के स्मरण का महत्व भी बताया है। उन्होंने कहा:
“संपूर्ण ज्ञान कार्यक्रम में मृत्यु की तैयारी का एक प्रयोग डाला था और मैं बराबर यह बात अक्सर कहती हूँ – मृत्यु को याद करो। मृत्यु को जो याद करता है, मृत्यु को याद रखने वाले को कभी मोह नहीं पकड़ता, कभी भी दुख नहीं पकड़ता, झगड़ा नहीं पड़ता, क्रोध नहीं पकड़ता।”
मां शून्य के अनुसार, जो मृत्यु को याद रखता है, वह बहुत सारी चीजों से सहज भाव से बाहर निकल जाता है। यहां प्रयास भी नहीं करना पड़ता। संसार के सारे झगड़े शांत हो जाते हैं, क्योंकि मृत्यु इन सारे झगड़ों को एक क्षण में ही शांत कर देगी।
मां शून्य ने महाभारत का एक प्रसंग भी बताया, जहां युधिष्ठिर ने कहा था कि जगत में सबसे ज्यादा आश्चर्य वाली बात यह है कि रोज ही मृत्यु होती है, रोज ही मनुष्य देखता है, और फिर भी भूल जाता है कि मेरी भी मृत्यु होनी है।
सातवीं गाथा: मध्यम मार्ग और संयम
मां शून्य ने सातवीं गाथा के माध्यम से बुद्ध के प्रसिद्ध मध्यम मार्ग और संयम के महत्व को समझाया है। इस गाथा में बुद्ध कहते हैं:
“जो शुभ-शुभ को देखकर ही बिहार करते हैं, काम-भोग के जीवन में रत रहते हैं, इंद्रियों से असंयमी हैं, भोजन की उचित मात्रा का ज्ञान नहीं रखते, जो आलसी हैं, उन्हें मार वैसे ही गिरा देता है जैसे वायु दुर्बल वृक्ष को।”
मां शून्य ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए जीवन के यथार्थ को समझाया:
“हम अक्सर भूल जाते हैं कि यह जीवन द्वैत है। यहां सुख और दुख दोनों होंगे। यहां ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सिर्फ सुख और सुख हो। आप अपनी पूरी ताकत लगा दीजिए, सारे साम-दाम-दंड-भेद लगा लीजिए, सारे उपाय कर लीजिए, लेकिन सुख और दुख दोनों ही होंगे।”
बुद्ध ने ठीक इसी कारण मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था – न अति भोग में लिप्त होना, न अति त्याग में। मां शून्य ने भोजन में संयम और आलस के त्याग पर विशेष जोर दिया है। उनके अनुसार, हर शरीर स्वयं संकेत देता है कि कब भूख लगी है और कब खाना चाहिए। साथ ही शरीर यह भी बताता है कि अब बस हो गया। लेकिन हम इन प्राकृतिक संकेतों की अनदेखी करते हैं।
मां शून्य बताती हैं कि आलस और अनावश्यक कार्यों का त्याग में अंतर समझना चाहिए। जब कोई आत्मज्ञानी अपनी रुचि का कार्य करता है, तो उसे न भूख लगती है, न प्यास, न आराम की चिंता होती है, और वह ऊर्जा से भरपूर और प्रसन्न रहता है। यह आलस नहीं, बल्कि एकाग्रता का परिणाम है।
निष्कर्ष: बुद्ध पूर्णिमा – सर्व पथों का मिलन बिंदु
बुद्ध पूर्णिमा हमें गुरु-शिष्य परंपरा के महत्व के साथ-साथ जीवन के समग्र दृष्टिकोण को समझने की प्रेरणा देती है। मां शून्य के धम्मपद व्याख्यान से हमें यह गहरी समझ मिलती है कि गौतम बुद्ध के उपदेश किसी एक मार्ग तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे सभी मार्गों के सार को समेटे हुए हैं।
बुद्ध ने ज्ञान मार्ग के माध्यम से स्वयं को जानने का मार्ग दिखाया, भक्ति मार्ग के लिए करुणा और मैत्री का संदेश दिया, कर्म मार्ग के लिए सम्यक कर्म का उपदेश दिया, और योग मार्ग के लिए ध्यान और एकाग्रता की विधि बताई। उनके उपदेश सनातन धर्म के मूल तत्वों से अभिन्न हैं, जिन्हें मां शून्य अपने व्याख्यानों में समकालीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हैं।
मां शून्य की धम्मपद व्याख्यानों से प्रेरित होकर, हम बुद्ध पूर्णिमा पर संकल्प लें कि:
अपने मन को शुद्ध रखेंगे और विचारों के प्रति साक्षी भाव विकसित करेंगे।
करुणा और मैत्री भाव से सभी प्राणियों के प्रति व्यवहार करेंगे।
वैर से मुक्त होकर, द्वेष और अहंकार को त्यागेंगे।
मृत्यु के स्मरण से जीवन की नश्वरता को समझकर, हर क्षण का महत्व जानेंगे।
इंद्रियों पर संयम रखेंगे और मध्यम मार्ग का अनुसरण करेंगे।
अपने आंतरिक बुद्धत्व को पहचानेंगे और उससे जुड़ेंगे।
मां शून्य हमें सिखाती हैं कि हर व्यक्ति के भीतर बुद्धत्व निहित है, और हमारा उद्देश्य है इस अंतर्निहित ज्योति को जगाना। बुद्ध पूर्णिमा हमें अपने वास्तविक स्वरूप की ओर यात्रा आरंभ करने या उसे गहन करने का अवसर प्रदान करती है – चाहे हम किसी भी मार्ग का अनुसरण करते हों।
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारा अस्तित्व केवल शारीरिक सीमाओं से परे है? त्रिज्ञान कार्यक्रम के तीसरे दिन हम ब्रह्मज्ञान की उस गहन यात्रा पर चलेंगे, जो हमारी चेतना के मूल स्वरूप को समझने का प्रयास करती है।
ब्रह्मज्ञान: मूल अवधारणा
अनुभव और अनुभव कर्ता: एक अभिन्न संबंध
ब्रह्मज्ञान की मूल समझ इस बात पर केंद्रित है कि:
अनुभव और अनुभव करने वाला एक ही है
बाहरी परिवर्तन केवल रूप में होते हैं, सार नहीं बदलता
मिट्टी और घड़े का उदाहरण
जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है, फिर भी मिट्टी अपने मूल स्वरूप में ही रहती है, उसी प्रकार हमारा अस्तित्व भी विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, लेकिन उसका मूल सार अपरिवर्तनीय रहता है।
दूरी का भ्रम
शरीर और चेतना के बीच की दूरी
हम अक्सर सोचते हैं कि:
हम शरीर हैं
चीजें हमसे दूर हैं
अनुभव और अनुभव कर्ता अलग-अलग हैं
लेकिन ब्रह्मज्ञान कहता है – यह सब एक भ्रम है!
चेतना का सार: अनंत और सर्वव्यापी
आकाश का उदाहरण
जैसे आकाश सर्वव्यापी है और हर वस्तु को अपने में समाहित करता है, उसी प्रकार हमारी चेतना भी:
सबको धारण करती है
किसी सीमा से बंधी नहीं है
हर अनुभव का आधार है
जीवन में ब्रह्मज्ञान का अनुप्रयोग
साक्षी भाव: जीवन का सरल मार्ग
ब्रह्मज्ञान के अनुसार जीवन जीने के लिए:
अपने अनुभवों का साक्षी बनें
किसी भी परिस्थिति में संतुलन बनाए रखें
भय, चिंता और संघर्ष से मुक्त रहें
निष्कर्ष: परम सत्य की ओर
ब्रह्मज्ञान हमें सिखाता है कि:
हम केवल शरीर नहीं हैं
हमारा अस्तित्व अनंत है
हर अनुभव एक क्षणिक प्रकटीकरण मात्र है
अंतिम संदेश
याद रखें, ब्रह्मज्ञान एक अनुभव है, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, शब्दों में पूरी तरह बयान नहीं किया जा सकता।
“मैं हूँ, जो अनंत अस्तित्व हूँ, जो हर रूप में प्रकट होता है।”
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माया शब्द संस्कृत से आया है जिसका अर्थ है “जो नहीं है”। आध्यात्मिक दर्शन में माया का अर्थ है वह भ्रम जो हमें सत्य से दूर रखता है। त्रिज्ञान कार्यक्रम के द्वितीय दिवस में हम इसी माया के विषय में विस्तार से जानेंगे। पहले दिन आत्मज्ञान के माध्यम से हमने जाना कि “मैं कौन हूँ?”, और अब दूसरे दिन हम जानेंगे कि “जगत क्या है?”
जब हम अपने चारों ओर देखते हैं तो हमें एक दृश्य जगत दिखाई देता है – वस्तुएँ, व्यक्ति, घटनाएँ, अनुभव। लेकिन क्या यह सब वास्तव में वैसा ही है जैसा हमें दिखाई देता है? या यह सब एक भ्रम है? आइए इसे गहराई से समझें।
वस्तुनिष्ठता का भ्रम
हम सभी मानते हैं कि हमारे चारों ओर की दुनिया वस्तुनिष्ठ है, यानी सभी के लिए एक समान। उदाहरण के लिए, अगर हम सभी एक टेबल देख रहे हैं, तो हम मानते हैं कि वह टेबल सभी के लिए एक जैसा ही है। लेकिन क्या यह सत्य है?
यहाँ एक सरल उदाहरण लें:
एक व्यक्ति को रंग-अंधापन है और वह लाल रंग नहीं देख सकता
वह ट्रैफिक सिग्नल को अलग रंग में देखता है
दूसरा व्यक्ति उसे लाल में देखता है
तो प्रश्न उठता है: सच क्या है? सिग्नल का वास्तविक रंग क्या है?
इसी तरह, जब दो लोग एक ही घटना देखते हैं, वे उसका अलग-अलग अनुभव कर सकते हैं। एक व्यक्ति को कोई व्यंजन स्वादिष्ट लगता है, दूसरे को वही बेस्वाद। कोई व्यक्ति किसी फिल्म को अच्छा मानता है, दूसरा बुरा। यहाँ सत्य क्या है?
यह दर्शाता है कि जगत वस्तुनिष्ठ नहीं, बल्कि व्यक्तिनिष्ठ है – हर व्यक्ति का अपना अनुभव, अपनी समझ है।
परिवर्तनशीलता: माया का मूल लक्षण
माया का एक मुख्य लक्षण है – परिवर्तनशीलता। जो चीज़ बदलती है, वह सत्य नहीं हो सकती। और हम देखते हैं कि इस संसार में हर चीज़ बदल रही है:
सूक्ष्म परिवर्तन: टमाटर का उदाहरण लें। आज जो ताज़ा है, पाँच दिन बाद सड़ जाएगा। यदि हम समय को तेज़ कर दें तो हम देखेंगे कि टमाटर का वास्तविक अस्तित्व नहीं है – वह सिर्फ एक क्षणिक अवस्था है।
मध्यम परिवर्तन: हमारा शरीर – बचपन से जवानी और फिर बुढ़ापे तक, निरंतर बदल रहा है।
दीर्घकालिक परिवर्तन: पहाड़, नदियाँ, सूर्य, चंद्र – ये सब भी लंबे समय में बदलते हैं।
इस संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है, सब कुछ परिवर्तनशील है। और जो परिवर्तनशील है, वह सत्य कैसे हो सकता है?
अनुभव और अनुभवकर्ता
जब हम अपने अनुभवों को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि हर अनुभव को अनुभव करने वाला कोई होना चाहिए। उदाहरण के लिए:
टेबल दिखता है – अनुभव
मैं देखता हूँ – अनुभवकर्ता
इसी तरह:
दर्द होता है – अनुभव
मैं महसूस करता हूँ – अनुभवकर्ता
हमारे सभी अनुभव बदलते रहते हैं – सुख-दुःख, भूख-प्यास, संवेदनाएँ, विचार – लेकिन अनुभवकर्ता वही रहता है। यह अनुभवकर्ता ही आत्मज्ञान में जिसे हमने “मैं” के रूप में जाना, वही एकमात्र स्थिर तत्व है।
माया की चार विशेषताएँ
माया के मुख्य लक्षण हैं:
परिवर्तनशीलता: जगत में हर चीज़ बदलती है।
अनित्यता: कुछ भी स्थायी नहीं है, सब नाशवान है।
भ्रामकता: चीज़ें वैसी नहीं होतीं जैसी दिखती हैं।
व्यक्तिनिष्ठता: हर व्यक्ति का अनुभव अलग होता है।
फिल्म और सपने का उदाहरण
माया को समझने का एक अच्छा तरीका है फिल्म या सपने का उदाहरण। जब हम फिल्म देखते हैं, तो हम जानते हैं कि वह असत्य है, फिर भी हम उसमें डूब जाते हैं। हम खुश होते हैं, दुःखी होते हैं, डरते हैं – सब कुछ फिल्म के अनुसार अनुभव करते हैं। लेकिन फिल्म खत्म होने पर हमें याद आता है कि वह सब असत्य था।
इसी तरह सपने में भी – सपने के दौरान हमें लगता है कि वह सब सत्य है, लेकिन जागने पर पता चलता है कि वह सब माया थी।
क्या यह जीवन भी ऐसा ही नहीं है? हम इसमें डूबे हैं, इसे सत्य मानते हैं, लेकिन यह भी एक लंबा सपना ही तो है!
अस्तित्व क्या है?
अब प्रश्न उठता है: यदि सब कुछ माया है, तो सत्य क्या है? अस्तित्व क्या है?
ज्ञान मार्ग हमें बताता है कि सत्य केवल दो चीज़ों का मिश्रण है:
अनुभव
अनुभवकर्ता
इन दोनों के मिलन को ही “अस्तित्व” या “ब्रह्म” कहा जाता है। बाकी सब माया है, भ्रम है। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और “मैं” (अनुभवकर्ता) ब्रह्म का ही अंश है।
माया में जीवन: व्यावहारिक दृष्टिकोण
जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि जगत माया है, तो हमारी जीवन शैली कैसी होनी चाहिए?
साक्षीभाव: शरीर, मन और जगत के क्रियाकलापों को साक्षी भाव से देखें। हम केवल द्रष्टा हैं, कर्ता नहीं।
अनासक्ति: माया में आसक्त न हों। जैसे फिल्म देखते हुए हम जानते हैं कि वह वास्तविक नहीं है, वैसे ही जीवन को जानें।
अहंकार का त्याग: “मैं कर्ता हूँ” का भाव छोड़ें। कोई कुछ नहीं करता, सब अपने आप घटित हो रहा है।
आनंद में रहें: माया का खेल जारी रहेगा, लेकिन हम इसे जानते हुए आनंद से जी सकते हैं।
निष्कर्ष: माया से परे
जो हम देखते हैं, महसूस करते हैं, अनुभव करते हैं – वह सब माया है। वह सब बदलता है, अनित्य है। परंतु इस माया को जानने वाला, अनुभव करने वाला “मैं” स्थिर है, शाश्वत है। वही एकमात्र सत्य है।
त्रिज्ञान के दूसरे दिन, हम इस माया के ज्ञान को समझते हैं। पहले दिन आत्मज्ञान (मैं कौन हूँ?) और दूसरे दिन माया का ज्ञान (जगत क्या है?) के बाद, तीसरे दिन हम ब्रह्म ज्ञान (परम सत्य क्या है?) को समझेंगे, जो त्रिज्ञान का पूर्ण रूप है।
यदि आप माया के इस ज्ञान को अधिक गहराई से समझना चाहते हैं, तो कैवल्याश्रम के त्रिज्ञान कार्यक्रम में आमंत्रित हैं, जहाँ माँ शून्य के मार्गदर्शन में यह ज्ञान विस्तार से समझाया जाता है।
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वेदों में कहा गया है, “आत्मानं विद्धि” – अपने आप को जानो। सम्पूर्ण अध्यात्म का सार इस छोटे से वाक्य में समाहित है। वास्तव में, “मैं कौन हूँ?” यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका उत्तर जानना प्रत्येक साधक के लिए अनिवार्य है।
कैवल्याश्रम मेरठ में, हम इसी प्रश्न पर आधारित आत्म-अन्वेषण की यात्रा का मार्गदर्शन करते हैं। ज्ञान मार्ग पर चलने वाले साधकों को माँ शून्या के मार्गदर्शन में वास्तविक आत्मज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह लेख उन्हीं सिद्धांतों और अनुभवों पर आधारित है, जिन्हें हमारे आश्रम में सरल भाषा में समझाया जाता है।
आइए, आत्मज्ञान की इस यात्रा पर चलें और जानें – “मैं कौन हूँ?”
“मैं कौन हूँ?” – प्रश्न का महत्व
अधिकतर लोग जीवन भर यह जानने का प्रयास करते हैं कि वे क्या चाहते हैं, उन्हें क्या पसंद है, उनका लक्ष्य क्या है – परंतु बहुत कम लोग इस मूलभूत प्रश्न पर विचार करते हैं कि “मैं कौन हूँ?”
महर्षि रमण ने इसी प्रश्न को आत्म-साक्षात्कार का सीधा मार्ग बताया था। उनके अनुसार, “मैं कौन हूँ?” का निरंतर अभ्यास मन को अंतर्मुखी बनाता है और अंततः आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
हमारे आश्रम में हम साधकों को इस प्रश्न के साथ जीने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह केवल बौद्धिक प्रश्न नहीं है, बल्कि एक ऐसी खोज है जो हमारे अस्तित्व के मूल को स्पर्श करती है।
आत्मज्ञान की परिभाषा
आत्मज्ञान का अर्थ है अपने वास्तविक स्वरूप को जानना। यह जानना कि मेरा तत्व क्या है? वह क्या है जो मुझे परिभाषित करता है और जिसके बिना मैं नहीं रह सकता?
अद्वैत वेदांत के अनुसार, आत्मज्ञान अर्थात् अपने सच्चिदानंद स्वरूप का बोध। सत् (अस्तित्व), चित् (ज्ञान) और आनंद (परमानंद) – यही हमारा वास्तविक स्वरूप है।
कैवल्याश्रम में हम आत्मज्ञान को सिद्धांत के साथ-साथ अनुभव का विषय मानते हैं। हमारे त्रिज्ञान कार्यक्रम में साधकों को तीन प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं:
आत्म ज्ञान – मैं क्या हूँ?
माया का ज्ञान – जगत क्या है?
ब्रह्म ज्ञान – परम सत्य क्या है?
इन तीनों में से आत्मज्ञान सबसे मूलभूत है, क्योंकि इसके बिना अन्य ज्ञान अपूर्ण रहते हैं।
“मैं क्या नहीं हूँ?” – नेति-नेति विधि
आत्मज्ञान की यात्रा में पहला कदम है – यह जानना कि “मैं क्या नहीं हूँ।” उपनिषदों में इसे “नेति-नेति” (न इति, न इति – यह नहीं, यह नहीं) विधि कहा गया है।
आइए, क्रमशः विभिन्न स्तरों पर देखें कि मैं क्या नहीं हूँ:
1. भौतिक वस्तुएँ
सबसे पहले, मैं अपने आस-पास की कोई भी वस्तु नहीं हूँ – न घर, न कार, न पुस्तकें, न कोई भी संपत्ति। ये सभी वस्तुएँ मेरी हो सकती हैं, लेकिन मैं इनमें से कोई भी नहीं हूँ।
इसके दो प्रमाण हैं:
इन वस्तुओं का अनुभव मुझे होता है, और जिसका अनुभव होता है, वह मैं नहीं हो सकता
ये वस्तुएँ आती-जाती और बदलती रहती हैं, जबकि मैं स्थिर रहता हूँ
2. शरीर
क्या मैं अपना शरीर हूँ? यह प्रश्न थोड़ा गहरा है। अधिकतर लोग अपने को शरीर ही मानते हैं, लेकिन गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि मैं शरीर नहीं हूँ।
कारण:
शरीर निरंतर बदलता रहता है – पाँच वर्ष पहले का शरीर और आज का शरीर भिन्न है
शरीर का अनुभव मुझे होता है – मैं देखता हूँ कि मेरा हाथ ऐसा है, पैर वैसा है
शरीर के किसी भाग के न रहने पर भी (जैसे हाथ या पैर) मैं पूर्ण रहता हूँ
हम कहते हैं, “मेरा शरीर” न कि “मैं शरीर हूँ।” यह “मेरा” शब्द ही बताता है कि शरीर मेरी संपत्ति है, मैं स्वयं नहीं।
3. शारीरिक अनुभूतियाँ
भूख, प्यास, दर्द, थकान – ये सभी शारीरिक अनुभूतियाँ हैं। क्या मैं इनमें से कोई हूँ?
जब भूख नहीं होती, तब भी मैं होता हूँ। जब दर्द नहीं होता, तब भी मैं होता हूँ। जब थकान नहीं होती, तब भी मैं होता हूँ।
ये अनुभूतियाँ आती-जाती रहती हैं, जबकि मैं स्थिर रहता हूँ। इसलिए, मैं इनमें से कोई भी नहीं हूँ।
4. भावनाएँ
क्रोध, प्रेम, घृणा, भय, आनंद, दुःख – ये सभी भावनाएँ हैं। क्या मैं इनमें से कोई हूँ?
हम कहते हैं, “मुझे क्रोध आ रहा है,” “मुझे प्रेम हो रहा है,” “मुझे भय लग रहा है।” इन वाक्यों में, मैं वह हूँ जिसे ये भावनाएँ होती हैं, न कि स्वयं भावनाएँ।
भावनाएँ भी आती-जाती हैं, जबकि मैं स्थिर रहता हूँ। इसलिए, मैं कोई भी भावना नहीं हूँ।
5. विचार
क्या मैं अपने विचार हूँ? हमारे मन में प्रतिक्षण अनेक विचार आते-जाते रहते हैं। यदि मैं अपने विचार होता, तो मैं हर पल बदल रहा होता।
जब विचार नहीं होते (जैसे गहरी नींद में), तब भी मैं होता हूँ। विचारों का अनुभव मुझे होता है, और जिसका अनुभव होता है, वह मैं नहीं हो सकता।
इसलिए, मैं अपने विचार नहीं हूँ।
6. स्मृतियाँ
मेरा नाम, पता, शिक्षा, परिवार, रिश्ते – ये सभी स्मृतियाँ हैं। क्या मैं अपनी स्मृतियाँ हूँ?
यदि मैं अपनी स्मृति खो दूँ (जैसे, अपना नाम भूल जाऊँ), तब भी मैं होता हूँ। मैं कहूँगा, “मुझे याद नहीं,” न कि “मैं नहीं हूँ।”
इसलिए, मैं अपनी स्मृतियाँ नहीं हूँ।
7. अहंकार (मैं-भाव)
अंत में, मैं अपना अहंकार भी नहीं हूँ – वह “मैं” जो कहता है, “मैं ऐसा हूँ,” “मैं वैसा हूँ।”
अहंकार भी एक विचार है, जिसका अनुभव मुझे होता है। जब अहंकार शांत होता है (जैसे ध्यान में), तब भी मैं होता हूँ।
इसलिए, मैं अपना अहंकार भी नहीं हूँ।
“तो मैं क्या हूँ?” – साक्षी चेतना
जब हम क्रमशः सभी अनुभवों को अपने से अलग कर देते हैं, तो क्या बचता है? वह साक्षी चेतना जो सभी अनुभवों का साक्षी है, लेकिन स्वयं किसी अनुभव का विषय नहीं बनती।
कैवल्याश्रम में हम इसे सरल शब्दों में समझाते हैं – मैं वह हूँ जो देखता है, जानता है, अनुभव करता है, लेकिन स्वयं देखा, जाना या अनुभव नहीं किया जा सकता।
इस साक्षी चेतना के पाँच मुख्य गुण हैं:
1. निराकार और अपरिवर्तनशील
साक्षी का कोई आकार या रूप नहीं है। यदि इसका कोई रूप होता, तो यह अनुभव का विषय बन जाता और फिर साक्षी नहीं रहता।
साक्षी अपरिवर्तनशील है – यह कभी नहीं बदलता। यदि यह बदलता, तो इसके बदलने का अनुभव किसे होता? फिर वह भी साक्षी होता, और हम अनंत प्रतिगमन में फँस जाते।
2. अजन्मा, अजर, अमर
जन्म का अर्थ है – किसी पदार्थ का रूपांतरण। जैसे, मिट्टी से घड़ा बनना। घड़े का जन्म होता है, लेकिन मिट्टी पहले से थी।
साक्षी कोई पदार्थ नहीं है, इसलिए इसका जन्म नहीं होता। यह अजन्मा है।
जिसका जन्म नहीं होता, उसकी मृत्यु भी नहीं होती। इसलिए, साक्षी अमर है।
जिसमें परिवर्तन नहीं होता, वह बूढ़ा नहीं होता। इसलिए, साक्षी अजर है।
3. मुक्त और स्वतंत्र
साक्षी सदा मुक्त है – यह किसी बंधन में नहीं आता। शरीर बंधन में हो सकता है, मन बंधन में हो सकता है, लेकिन साक्षी सदा मुक्त रहता है।
यह जन्म-मृत्यु के चक्र से भी मुक्त है। यही वास्तविक मोक्ष है – अपने मुक्त स्वरूप को जान लेना।
4. शांत और आनंदमय
साक्षी में कोई विचार नहीं है, कोई द्वंद्व नहीं है, कोई दुःख नहीं है। यह स्वभाव से ही शांत और आनंदमय है।
गहरी नींद में जब कोई विचार नहीं होता, तब भी जो शांति का अनुभव होता है, वह साक्षी का स्वभाव है।
5. सर्वव्यापी और एक
सभी में एक ही साक्षी है। जैसे घट के आकाश और महा-आकाश में कोई भेद नहीं है, वैसे ही सभी प्राणियों में एक ही साक्षी है।
यही अद्वैत है – अनेकता में एकता का दर्शन। जब हम इस सत्य को जान लेते हैं, तो प्रेम स्वाभाविक हो जाता है, क्योंकि हम जान लेते हैं कि सभी में वही चेतना विराजमान है जो हममें है।
आत्मज्ञान प्राप्त करने की विधियाँ
कैवल्याश्रम में हम आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निम्न विधियों का अभ्यास करवाते हैं:
1. आत्म-विचार
“मैं कौन हूँ?” इस प्रश्न पर निरंतर चिंतन-मनन करना। जब भी कोई विचार आए, अपने से पूछें, “यह विचार किसे आ रहा है?” और विचारों के मूल तक जाएँ।
2. साक्षी भाव का अभ्यास
हर अनुभव, हर विचार, हर भावना को केवल देखें, उनमें लिप्त न हों। धीरे-धीरे यह अभ्यास आपको अपने साक्षी स्वरूप से परिचित कराएगा।
3. ध्यान
नियमित ध्यान से मन शांत होता है और अंतर्मुखी बनता है। शांत मन में ही आत्मज्ञान का प्रकाश फैलता है।
4. सत्संग
ज्ञानी गुरु के साथ सत्संग से आत्मज्ञान का मार्ग स्पष्ट होता है। कैवल्याश्रम में नियमित सत्संग से साधकों के सभी संदेह दूर होते हैं।
5. आत्म-अन्वेषण कार्यक्रम
हमारे त्रिज्ञान कार्यक्रम में साधकों को आत्मज्ञान के मार्ग पर चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ाया जाता है। इसमें सिद्धांत और अनुभव, दोनों पर बल दिया जाता है।
आत्मज्ञान से जीवन में परिवर्तन
आत्मज्ञान केवल एक दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक ऐसा अनुभव है जो जीवन को पूरी तरह बदल देता है। आत्मज्ञान से मिलने वाले लाभ:
1. शांति और आनंद
जब आप जान जाते हैं कि आप शरीर, मन, या किसी भी अनुभव से परे हैं, तो शांति स्वाभाविक हो जाती है। आप किसी भी परिस्थिति में अपने आनंदमय स्वरूप में स्थित रहते हैं।
2. भय का अंत
मृत्यु का भय, हानि का भय, असफलता का भय – ये सभी भय समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि आप जान जाते हैं कि आपका वास्तविक स्वरूप अजन्मा और अमर है।
3. प्रेम और करुणा
जब आप सभी में एक ही चेतना देखते हैं, तो प्रेम और करुणा स्वाभाविक हो जाती है। आत्मज्ञानी पुरुष सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है।
4. द्वंद्वों से मुक्ति
सुख-दुःख, लाभ-हानि, सम्मान-अपमान – ये सभी द्वंद्व आत्मज्ञानी को प्रभावित नहीं करते। वह इन सबके साक्षी भाव से रहता है।
5. आत्म-संतुष्टि
आत्मज्ञानी को बाहरी वस्तुओं या परिस्थितियों से सुख-शांति की अपेक्षा नहीं रहती। वह अपने में ही पूर्ण और संतुष्ट रहता है।
कैवल्याश्रम में आत्मज्ञान की यात्रा
कैवल्याश्रम मेरठ में साधकों को आत्मज्ञान के मार्ग पर व्यावहारिक मार्गदर्शन मिलता है। हमारे यहां:
त्रिज्ञान कार्यक्रम: तीन दिन के इस गहन कार्यक्रम में साधकों को आत्मज्ञान, माया का ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान का परिचय मिलता है।
नियमित सत्संग: माँ शून्या के मार्गदर्शन में सत्संग से साधकों के संदेह दूर होते हैं।
ध्यान शिविर: विभिन्न ध्यान विधियों का अभ्यास कराया जाता है, जिससे साधक अंतर्मुखी होकर आत्म-अन्वेषण कर सकें।
आत्म-अन्वेषण कक्षाएँ: इन कक्षाओं में साधकों को “मैं कौन हूँ?” प्रश्न पर गहन चिंतन-मनन का अवसर मिलता है।
व्यक्तिगत मार्गदर्शन: प्रत्येक साधक की आध्यात्मिक यात्रा अद्वितीय होती है। हम व्यक्तिगत स्तर पर भी मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
निष्कर्ष – आत्मज्ञान की ओर आपका आमंत्रण
“मैं कौन हूँ?” – इस सरल प्रश्न में गहन आध्यात्मिक खोज छिपी है। यह खोज आपको अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराती है – वह स्वरूप जो शाश्वत, आनंदमय और पूर्ण है।
कैवल्याश्रम मेरठ में हमारा प्रयास है कि प्रत्येक साधक को आत्मज्ञान के इस पवित्र मार्ग पर सरल और सहज तरीके से आगे बढ़ाया जाए। हमारा आश्रम आपका स्वागत करता है – आत्म-साक्षात्कार के इस पवित्र स्थल में।
“स्वयं को जानो, और तुम सारे ब्रह्मांड को जान जाओगे।”
— माँ शून्य, कैवल्याश्रम मेरठ
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